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नरेश बंसल नहीं नरेंद्र नेगी की तरह उतराखण्ड के लिए समर्पित व्यक्ति चाहिए राज्यसभा सांसद

राज्यसभा सांसद के चयन ने किया उतराखण्डियों को फिर निराश

प्यारा उतराखण्ड डाट काम
आखिरकार 26 अक्टूबर को भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में होने वाले आगामी द्विवार्षिक राज्यसभा चुनाव 2020 के लिए नामों को स्वीकृति प्रदान की । उत्तराखंड की एक राज्यसभा सीट के लिए तमाम अटकलों को विराम देते हुए नरेश बंसल को भारतीय जनता पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाया ।वही उत्तर प्रदेश से वर्तमान केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी, अरुण सिंह, हरिद्वार दुबे, उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व प्रमुख बृजलाल, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के सुपुत्र नीरज शेखर, श्रीमती गीता शाक्य, बीएल वर्मा और श्रीमती सीमा द्विवेदी।
उत्तराखंड से जैसे ही नरेश बंसल को भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपना प्रत्याशी बनाए जाने की खबर सुन कर जनता फिर ठगा महसूस करने लगी। जनता की भावना को स्वर देते हुए उत्तराखंड के वरिष्ठ आंदोलनकारी देव सिंह रावत ने लिखा
कभी सुषमा
तो कभी चतुर्वेदी
तो कभी राज बब्बर
पर अब थोपे जाएंगे बंसल
जिनका उत्तराखंड से नहीं है कोई सरोकार
वही बनेंगे उत्तराखंड सिंह राज्यसभा सांसद।

ऐसा नहीं कि यह काम भारतीय जनता पार्टी ने ही पहली बार किया या इस प्रकार का कार्य पहली बार उत्तराखंड में हो रहा हो ।इससे पहले भी सुषमा स्वराज को उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद बनाया गया। उसके बाद कांग्रेस ने मध्य प्रदेश के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी को बनाया ।उसके बाद कांग्रेस ने राज बब्बर को भी बना दिया ।अब भारतीय जनता पार्टी ने नरेश बंसल को बनाकर जनता की आशाओं में फिर वज्रपात कर दिया । उत्तराखंड की जनता चाहती कि कम से कम राज्यसभा में एक ऐसा आदमी जाए जो उनके दुख दर्द को देश व प्रदेश के हुक्मरानों को सुना तो सकें ।
ऐसा नहीं कि उत्तराखंड में सांसद पहली बार कोई सांसद बनना हो ।यहां कई सांसद हैं लोकसभा व राज्य सभा के। ं सन 2000 से 2020 तक कई मुख्यमंत्री बने । दर्जनों मंत्री व विधायक भी बने । परंतु उत्तराखंड के दुख दर्द को समझने वाला, कहने वाला और उसका निदान करने वाला एक अदद नेता भी उत्तराखंड के पास नहीं है । इसकी कमी उत्तराखंड को राज्य गठन से पहले से लेकर आज तक महसूस हो रही है ।जब उत्तर प्रदेश की विधानसभा में उत्तर प्रदेश राज्य गठन के लिए उत्तर प्रदेश राज्य पुनर्गठन विधेयक को रखा जा रहा था और उस समय उत्तराखंड से 19 विधायक वहां पर मौजूद थे ।जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक में उत्तराखंड के हक हकूकों पर खिलवाड़ किया जा रहा था, उस समय केवल मुन्ना सिंह चैहान ने ं उसका पुरजोर प्रतिकार किया । अन्य दलीय बंधुआ मजदूर बनकर मौन रहने वाले नेताओं की कमी नहीं रही। उसके बाद मुख्यमंत्री बनने में स्वामी से लेकर वर्तमान त्रिवेंद्र रावत तक ऐसे ऐसे नेता बने जिन्होंने उत्तराखंड के हितों जन आकांक्षाओं, देश की सुरक्षा और उत्तराखंड की चैमुखी विकास को अपने निजी स्वार्थ व दलीय स्वार्थ के लिए रोंदने का काम किया। इन नेताओं में इतनी नैतिकता नहीं रही ये उत्तराखंड राज्य गठन के समय पूरे हरिद्वार जनपद को मिलाने का विरोध करते। इन नेताओं में इतनी नैतिकता नहीं रही जो ये ं उत्तराखंड का नाम उत्तरांचल करने को उतारू अपने आला नेताओं के समक्ष विरोध करते । इन नेताओं में इतनी कुब्बत नहीं रही थी कि जो ये उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण बनाने के बजाय देहरादून में थोपने वाली सरकारों का विरोध करते। इन नेताओं में इतनी कुब्बत नहीं रही कि ये मुजफ्फरनगर कांड के गुनाहगारों को सजा देने के लिए ठोस पहल करते। इन नेताओं में इतना इतनी नैतिकता नहीं रही कि यह हिमाचल की तरह भू कानून बनाने की आवाज उठाते। इन नेताओं में इतनी नैतिकता नहीं रही कि वे जनसंख्या पर आधारित विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन को रोक पाए। इन नेताओं में इतनी कुब्बत नहीं रही जो ये उत्तराखंड की को शराब का गटर बनाने को उतारू सरकारों पर अंकुश लगा पाते। इन नेताओं में इतनी नैतिकता नहीं रही जो ये उत्तराखंड को सत्ता के दलालों और भ्रष्टाचारियों से मुक्त कर एक आदर्श उत्तराखंड राज्य गठन के लिए काम कर पाते। इन नेताओं में इतनी हिम्मत नही उत्तराखंड की आशाओं को रौंदने वाले नौकरशाहों पर अंकुश लगाएं ।
उत्तराखंड की जनता यही चाहती हैं कि कोई हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री परमार की तरफ उत्तराखंड की दिशा और दशा को बदलने वाला नेता हो जोे जनता को सही दिशा देने का भी काम करे। यहां के वर्तमान नेताओं में आवाज उठाने तक की हिम्मत नहीं है ।जनता चाहती थी कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो नरेंद्र सिंह नेगी की तरह उत्तराखंड के दर्द को अपने स्वर देकर, देश के गूंगे बहरे हुक्मरानों को उत्तराखंड के सता लोलुपु नेताओं को सुनाने का काम करें । उत्तराखंड को जो जरूरत थी उसेे मोदी सरकार पूरा कर सकती थी ।परंतु मोदी सरकार भी कांग्रेस की तरह दलीय स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करने का हिम्मत नहीं जुटा पाई ।राज्यसभा की एक सीट के लिए उत्तराखंड भारतीय जनता पार्टी ने जो 5 नाम भाजपा आला नेतृत्व के पास भेजे थे। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, राष्ट्रीय कार्यालय सचिव महेंद्र पांडे, पूर्व प्रांतीय महामंत्री नरेश बंसल, प्रांतीय उपाध्यक्ष अनिल गोयल व पूर्व सांसद बलराज पासी का नाम था। इसमें केवल बलराज पासी ही एक ऐसा नेता थे जो उत्तराखंड के हक हकूक ओं के लिए मजबूती से खड़े थे ।खासकर उस समय जब भाजपा के राष्ट्रीय नेता मदन लाल खुराना उत्तराखंड में उधम सिंह नगर को सम्मलित करने के विरोध में बादल बरनाला के अकाली षड्यंत्र को स्वर दे रहे हैं थे। ऐसे समय बलराज पासी ने मजबूती से उत्तराखंड का साथ दिया था। परन्तु भाजपा नेतृत्व ने उनको भी नजरांदाज कर दिया। रही बात विजय बहुगुणा की वह तो अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में ही पूरी तरह से बेनकाब हो चुके थे इसीलिए कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया था। कुल मिलाकर भाजपा ने भी राज्यसभा सांसद के चुनाव में उतराखण्डियों को निराश ही किया।
उल्लेखनीय है कि राज्य सभा भारतीय लोकतंत्र की ऊपरी प्रतिनिधि सभा है। लोकसभा निचली प्रतिनिधि सभा है। राज्यसभा में २४५ सदस्य होते हैं। जिनमे १२ सदस्य भारत के राष्ट्रपति के द्वारा नामांकित होते हैं। अन्य सदस्यों का चुनाव होता है। राज्यसभा में सदस्य ६ साल के लिए चुने जाते हैं, जिनमे एक-तिहाई सदस्य हर २ साल में सेवा-निवृत होते हैं। किसी भी संघीय शासन में संघीय विधायिका का ऊपरी भाग संवैधानिक बाध्यता के चलते राज्य हितों की संघीय स्तर पर रक्षा करने के सिद्धांत के चलते राज्य सभा का गठन किया गया।

संविधान की चैथी अनुसूची में राज्य सभा में राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को स्थानों के आवंटन का उपबंध है। स्थानों का आवंटन प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। राज्यों के पुनर्गठन तथा नए राज्यों के गठन के परिणामस्वरूप, राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को आवंटित राज्य सभा में निर्वाचित स्थानों की संख्या वर्ष 1952 से लेकर अब तक समय-समय पर बदलती रही है।

राज्य सभा सांसदी के लिए योग्यता
संविधान के अनुच्छेद 84 में संसद की सदस्यता के लिए अर्हताएं निर्धारित की गई हैं। राज्य सभा की सदस्यता के लिए अर्ह होने के लिए किसी व्यक्ति के पास निम्नलिखित अर्हताएं होनी चाहिए-

(क) उसे भारत का नागरिक होना चाहिए और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेना चाहिए या प्रतिज्ञान करना चाहिए और उस पर अपने हस्ताक्षर करने चाहिए।

(ख) उसे कम से कम तीस वर्ष की आयु का होना चाहिए।

(ग) उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं होनी चाहिए जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस निमित्त विहित की जाएं।

 

 

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