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नजफगढ़ की दामिनी के साथ दुष्कर्म और हत्या किसने की, सवाल तो उठेगा!

जगदीश ममगांई 
(वरिष्ठ राष्ट्रीय चिंतक व राजनेता)

अपने 40 पन्नों के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए सबूतों पर सवाल उठाते हुए छावला की रहने वाली 19 वर्षीय अनामिका को क्रूरता के साथ यातना, सामूहिक बलात्कार और बेरहमी से हत्या कर, क्षत-विक्षत शरीर को आंशिक रुप से जलाने के तीन आरोपियों को निचली अदालत व दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा प्रदत फांसी की सज़ा को रद्द कर रिहा कर दिया और वह भी तब जब भारत के मुख्य न्यायाधीश तीन सदस्य बेंच में रहे हों। ‘दुर्लभ से दुर्लभ’ के रुप में वर्णित इस मामले में अपराधियों को रिहा करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सभी भारतीय स्तब्ध हैं, विशेषकर दिल्ली व उत्तराखंड में आमजनों में तीखी प्रतिक्रिया है। दो अदालतों ने जिन्हें फांसी की सज़ा सुनाई उन्हें साक्ष्यों का लाभ दे सज़ा को फांसी की जगह उम्रकैद आदि देने की बजाए सीधे रिहा कर देना जहां समाज में बलात्कारियों का हौसला बढ़ा सकता है वहीं नारी सुरक्षा पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करेगा।
9 फरवरी 2012 की शाम लगभग पौने 9 बजे, अनामिका अपने तीन साथियों के साथ काम से घर की ओर लौट रही थी, जब उसे लाल रंग की कार में बैठे लोगों ने अगवा कर लिया। दिल्ली पुलिस को शिकायत करने पर स्थानीय थाने के अधिकारियों ने त्वरित कार्रवाई नहीं की, 13 फरवरी को द्वारका मेट्रो स्टेशन के पास संदिग्ध लाल रंग की कार में एक लड़का राहुल गाड़ियों के कागजों की जांच करते हुए पुलिस के हत्थे लग गया। पूछताछ के दौरान, राहुल ने कबूल किया कि उसने अपने भाई रवि और विनोद उर्फ छोटू के साथ मिलकर कुतुब विहार से एक लड़की का अपहरण किया, उसके साथ दुष्कर्म किया और उसकी हत्या कर शव को हरियाणा झज्जर के खेतों में फेंक दिया था। राहुल की शिनाख्त पर अनामिका का आंशिक रुप से जला हुआ क्षत-विक्षत शव हरियाणा से बरामद हो गया, आरोपी राहुल को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में आरोपी रवि व विनोद को भी गिरफ्तार कर लिया गया। आरोपियों के खुलासे के बाद तीनों के बयान दर्ज किए गए जिसमें उन्होंने अपहरण, सामूहिक बलात्कार और हत्या करने की बात स्वीकार की। द्वारका की निचली अदालत और दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपराध को दुर्लभतम की श्रेणी में रखते हुए तीनों आरोपियों राहुल, रवि व विनोद को फांसी की सज़ा सुनाई।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने, न केवल सरकारी पक्ष व पुलिस अभियोजन पक्ष पर सवाल खड़े किए बल्कि निचली अदालत और उच्च न्यायालय पर भी आरोप लगाया कि उन्होंने एक निष्क्रिय अंपायर के रुप में काम किया। आरोपी निष्पक्ष सुनवाई के अपने अधिकारों से वंचित रहे, भौतिक गवाहों से या तो जिरह नहीं की गई या पर्याप्त रुप से जांच नहीं की गई। जांच अधिकारी द्वारा 14 फरवरी 2012 और 16 फरवरी 2012 को आरोपी और मृतक से संबंधित नमूने जांच के लिए प्राप्त किए गए लेकिन उन्हें 27 फरवरी 2012 को जांच के लिए सीएफएसएल भेजा गया, आखिर 11 दिन तक वे थाने के मालखाना में क्यों रहे! ऐसे में एकत्र किए गए नमूनों से भी छेड़छाड़ की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। निचली अदालत ने अभियुक्तों द्वारा पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज खुलासे के बयानों को साक्ष्य मान लिया, मृतक का शव लगभग तीन दिनों तक खुले मैदान में पड़ा था लेकिन मृतक के शरीर में सड़न के कोई निशान नहीं थे। यह बहुत कम संभावना है कि शव तीन दिनों तक बिना किसी के देखे खेत में रहा होगा, मृतक के शरीर से बालों के एक कतरा की बरामदगी भी अत्यधिक संदिग्ध नजर आती है। इन सब कारणों से, निचली अदालत और उच्च न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धि और सज़ा के निर्णय व आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर उन पर लगे आरोपों से बरी कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि यदि जघन्य अपराध में शामिल अभियुक्तों को दंडित नहीं किया जाता है या बरी कर दिया जाता है, तो समाज और विशेष रुप से पीड़िता के परिवार के लिए एक प्रकार की पीड़ा और निराशा हो सकती है, यानी अपराध को उन्होंने जघन्य माना फिर भी रिहा करने के आदेश से सभी भारतीय स्तब्ध हैं, सवाल यह है कि यदि तीनों आरोपी बेकसूर हैं तो 19 वर्षीय अनामिका जिसको क्रूरता व यातना का सामना करना पड़ा, आँखे फोड़कर तेजाब डाला गया, आंशिक रुप से जला दिया गया व सामूहिक बलात्कार और गुप्तांग में टूटी बोतल घुसा बेरहमी से हत्या कर दी गई, तो कोई तो उसकी हालात के लिए दोषी तो होगा! निचली अदालत और उच्च न्यायालय की कार्रवाई को एकदम से नकार देना, उनकी प्रक्रिया को छिद्रान्वेषण नजरिए से समीक्षा करना और फांसी की सज़ा व दोषसिद्धि को पूर्णतया रद्द कर देना न्याय-व्यवस्था पर गंभीर प्रश्नचिन्ह है।
यदि पुलिस, निचली अदालत और उच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट की नजर में अपना कार्य ठीक से नहीं किया तो उन पर कार्रवाई करनी चाहिए लेकिन एक युवती के साथ हुई बर्बरता पर किसी को भी दोषी न मानना न्याय संगत नहीं माना जा सकता है। मामले की सुनवाई के दौरान अनामिका के परिवार, शुभचिंतकों व सहयोगी वकील को दोषियों के तेवर व धमकी का सामना करना पड़ा, वह भी तब जब उन्हें सज़ा हुई लेकिन अब उनके बरी होने के बाद, पीड़ित परिवार व इस केस से जुड़े लोगों की सुरक्षा चिंता का विषय है। अफसोस यह है कि न्यायालय ने पीड़िता के परिवार की सुरक्षा पर कोई संज्ञान नहीं लिया है।
दिल्ली में कानून-व्यवस्था केन्द्र सरकार के अधीन है, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस पर लापरवाही के कई आरोप लगाए हैं लिहाजा पुलिस के जांच दल जिसकी कोताही से बर्बर आरोपी बरी हो गए पर केन्द्रीय गृह मंत्रालय को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। निचली अदालत और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर यदि सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर सवाल उठाए हैं तो जबाबदेही सुनिश्चित करने व उनके विरुद्ध कार्रवाई करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है। जनआक्रोश को देखते हुए, केन्द्र सरकार व दिल्ली सरकार को जल्द से जल्द सुप्रीम कोर्ट के इस स्तब्धकारी फैसले के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दाखिल करनी चाहिए।
(लेखक जगदीश ममगांई राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के राष्ट्रीय सह-संयोजक, सामाजिक कार्यकर्त्ता व राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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