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खटीमा,मसूरी व मुजफ्फरनगर काण्ड के गुनाहगार मुलायम से अधिक गुनाहगार है 22 सालों के उतराखण्ड के मुख्यमंत्री व उनकी सरकारें

मुलायम ने उतराखण्डियोें के मान सम्मान व जनांकांक्षाओं के प्रतीक उतराखण्ड आंदोलन को कुचला, वहीं उतराखण्ड के मुख्यमंत्रियों ने दमन के गुनाहगारों को संरक्षण देकर राज्य गठन की गैरसैंण राजधानी आदि जनांकांक्षाओं को रौंदने का कृत्य किया

देवसिंह रावत

आज 2 सितम्बर यानी मसूरी कांड 94 की दर्दनाक स्मृतियां फिर उतराखण्डियों के मानसपटल पर छा गयी। राज्य गठन के बाद उतराखण्ड प्रदेश की सरकार खटीमा मसूरी के अमर बलिदानियों को श्रद्धांजलि दे कर जहां मुलायम को कोसती है वहीं शहीदों के सपनों का उतराखण्ड बनाने का संकल्प भी लेती है। पर हकीकत कुछ और ही है। सच्चाई यह है कि जितना गुनाहगार इन काण्डों के लिए मुलायम सिंह है उससे कम गुनाहगार उतराखण्ड राज्य गठन के बाद अब तक 22 सालों के मुख्यमंत्री व उनकी सरकार नहीं है। मुलायम सिंह यादव ने भी पहाड मैदान व अगडे पिछडे का दाव चल कर मानवता व भारतीय संस्कृति को शर्मसार करने के लिए खटीमा,, मसूरी, मुजफ्फरनगर श्रीयंत्र आदि अमानवीय दमन किया। वहंीं उतराखण्ड राज्य गठन के बाद उतराखण्ड की इन 22 सालों की सरकारों ने भी अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए व अपने दल के आकाओं को खुश करने के लिए जहां राज्य गठन जनांदोलन को रौंदने वाले गुनाहगारों को दण्डित नहीं किया वहीं उतराखण्ड राज्य गठन के प्रतीक राजधानी गैरसैंण बनाने, मुजफरनगर काण्ड के अभियुक्तों को सजा दिलाने, घुसपेठियों व अपराधियों से उतराखण्ड बचाने के लिए मूल निवास, भू कानून बनाने, रोजगार प्रदान करने व सुशासन आदि जनांकांक्षाओं को निर्ममता से रौंदने का काम कर रहे है। मुलायम सिंह यादव ने उतराखण्डियों को अपना  दुश्मन घोषित कर हमारे सीने पर वार किया। परन्तु उतराखण्डियों के संघर्ष, बलिदान की बदलोलत गठित उतराखण्ड राज्य की सेवक सरकारों ने प्रदेश की जनता के साथ  विश्वासघात करके न केवल दमन के दोषी गुनाहगारों को सजा नहीं दिलाई व इसके साथ जिन आंकांक्षाओं को साकार करने के लिए शहीदों व आंदोलनकारियों ने ऐतिहासिक आंदोलन किया था उन जनांकांक्षाओं को रौंदने काा कार्य किसी मुलायम सिंह ने नहीं अपितु स्वामी, कोश्यारी, तिवारी, खंडूरी, निशंक, बहुगुणा, हरीश, रावत, तीरथ व धामी जैसे उतराखण्ड के सेेवक कहलाने वाले मुख्यमंत्रियों व उनकी सरकारों ने किया। इनके विश्वासघात से उतराखण्ड बर्बादी के गर्त में आकंठ डूबा है। सत्तासीन होने के बाद इन्होने जिस प्रकार से प्रदेश के हक हकूकों व जनांकांक्षाओं को रौंदने का कार्य किया अपितु इन गुनाहगारों को सजा दिलाने के लिए ईमानदारी से कार्य तक नहीं किया। उल्टा जब शहीदों की शहादत दिवस होता है उस दिन ये घडियाली आंसू बहाने का कार्य बडी निर्लज्जता से करते हे।   विगत 28 सालों से हम शहीदों को न्याय दिलाने व जनांकांक्षाओं को साकार करने के लिए उतराखण्ड के हुक्मरानों को निरंतर धिक्कार इसी आशा से रहे हैं कि शायद इनकी सोई हुई आत्मा जागे। इसी लिए समाचार पत्र व सभाओं में हम बडी बेबाकी से अपनी श्रद्धाजलि इस रूप में देते हैं। शायद ये लोग जाग जाये। या इनका समर्थन करने वाले अंध भक्त इनको सही रास्ते पर लाने के लिए कहे। हमारा मानना है कि उत्तराखंडियों के मान सम्मान व जनाकांक्षाओं के प्रतिक राज्य गठन जनांदोलन को कुचलने के लिए जो कृत्य तत्कालीन मुलायम सरकार ने किया वही कार्य राज्य गठन के बाद 22 साल से उत्तराखंड की सरकारों ने  उन दमनकारी अपराधियों को बचाने व उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण सहित जनाकांक्षाओं को रौंदने का कर रहे हैं। जागो उत्तराखंडी घड़ियाली आंसू बहाने वालों से

कल ही खटीमा काण्ड के बलिदानियों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैने मुख्यमंत्री से लेकर अनेक नेताओं के टवीटर पर संदेश प्रेषित किया कि
उत्तराखंड राज्य गठन आंदोलन में खटीमा कांड94  की दर्दनाक  स्मृति के अमर बलिदानियों की पावन स्मृति को शत-शत नमन।
काश उत्तराखंड की  वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी इस दिवस पर पूर्व मुख्यमंत्रियों की तरह घड़ियाली आंसू ना बहा कर ईमानदारी से इन बलिदानियों से प्रेरणा लेकर उत्तराखंड राज्य गठन की जन आकांक्षाओं, चैमुखी विकास व लोकशाही के प्रतीक राजधानी गैरसैण व भू कानून आदि को साकार करने के लिए अपने दायित्वों का निर्वहन करते।
इन संदेशों में मात्र मेरा नहीं अपितु उतराखण्ड के समर्पित सपूतों का दर्द छुपा हुआ है। जो प्रदेश के हुक्मरानों द्वारा रौंदे जाने से और भी बेहाल हो गया है। इन काण्डों की स्मृतियां हर साल ताजा होती है। पर हम ऐसी निर्लज्ज व्यवस्था को धिक्कारने के अलावा कर भी क्या सकते है। हाॅ इतना विश्वास है कि महाकाल इन गुनाहगारों व इनके इन संरक्षकों को कभी माफ नहीं करेगा।

1सितम्बर 1994 को उतराखण्ड राज्य की मांग को लेकर प्रातः से ही हजारों की संख्या में लोग खटीमा की सडकों पर उतर आये। इस अवसर पर खटीमा के रामलीला मैदान में जनसभा आयोजित की गयी। जनसभा के बाद शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलनकारी खटीमा चैराहे पर जलूस के रूप में बढे। वहां पर तैनात उप्र पुलिस के इंस्पेक्टर डी के केन व उनके सहयोगियों ने अकारण ही बिना पूर्व चेतावनी के गोली चला दी। पुलिस के इस कत्लेआम में 7 आंदोलनकारी मारे गये और अनैक घायल हुये। बलिदानी आंदोलनकारी भगवान सिंह सिरौहा, प्रताप सिंह, सलीम अहमद, गोपीचंद, धर्मानंद भट्ट, परमजीत सिंह व रामपाल थे। इस हत्याकाण्ड की खबर मिलते ही देश की राजधानी दिल्ली में संसद की चैखट जंतर मंतर पर चल रहे ऐतिहासिक आंदोलन, पौड़ी, श्रीनगर, नैनीताल, अल्मोडा, पिथोरागढ़ देहरादून, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, चंपावत, मसूरी चमोली सहित प्रदेश के दर्जनों स्थानों पर चल रहे उतराखण्ड राज्य गठन आंदोलनकारियों में गहरा रोष फेल गया।

प्रदेश भर में खटीमा में 1 सितम्बर 1994 को उप्र पुलिस की हैवानियत के खिलाफ पूरा उतराखण्ड उद्देल्लित हो गया। लोगों ने देश की राजधानी दिल्ली में संसद की चैखट जंतर मंतर से लेकर देहरादून, मसूरी, पौड़ी, नैनीताल, अल्मोडा, श्रीनगर आदि स्थानों पर प्रचण्ड विरोध प्रदर्शन किये गये। इसी क्रम में मसूरी में खटीमा काण्ड के विरोध में मौन जलूस निकाल रहे उतराखण्ड राज्य आंदोलनकारियों की तरफ से प्रशासन से बातचीत करने मालरोड झूलाघर में 2 बहिनों को गोली मार दी और हांदोलनकारियों पर अकारण ही लाठी व गोली से हमला कर दिया। पुलिस की गोलीबारी में 21 आंदोलनकारी गोली का शिकार बने इनमें से 5 आंदोलनकारियों की मृत्यु हो गयी। मसूरी काण्ड-94 में बलिदान हुए उतराखण्ड राज्य आंदोलनकारियों में अमर बलिदानी स्व. बेलमती चैहान, हंसा धनाई, बलबीर सिंह नेगी, धनपत सिंह, मदन मोहन मंमगांई व राय सिंह बंगारी प्रमुख थे।
खटीमा व मसूरी काण्ड में उप्र सरकार की बर्बरता व हैवानियत के कारण उतराखण्ड सहित देश विदेश में रहने वाले लाखों उतराखण्डी पूरी तरह से उतराखण्ड राज्य के समर्थन में लांमबद हो गये। उतराखण्डी समाज में पुलिसिया दमन से उतराखण्ड राज्य गठन आंदोलन को कुचल रहे उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह पूरी तरह से खलनायक के रूप में लोगों द्वारा धिक्कारे जाने लगे। उतराखण्डियों को यह समझ में नहीं आया कि जो मुलायम सिंह उतराखण्ड राज्य गठन के प्रबल समर्थक थे वे अचानक अपनी संकीर्ण राजनीति के चलते पहाड़ विरोधी क्यों हो गये?
उप्र में तत्कालीन सपा बसपा सरकार के मुखिया मुलायम सिंह पहाड व मैदान की संकीर्ण राजनीति करते हुए इसे अगडे व पिछडे की लडाई बना कर अपनी राजनीति की बिसात बिछाने के कारण उतराखण्ड आंदोलनकारियों पर पुलिसिया दमन करने को उतारू हो गये। मुलायम सिंह यादव द्वारा उकसाये जाने को ऐसा घृर्णित दाग भारत के माथे पर 01 अक्टूबर 1994 की मध्य रात्रि को मुजफ्फर नगर में लगा जहां उप्र पुलिस प्रशासन ने 2 अक्टूबर 1994 को उतराखण्ड राज्य गठन के लिए लाल किला पर आयोजित विशाल रैली में भाग लेने आ रहे सैकडों आंदोलनकारियों को अकारण ही नारसन बार्डर रामपुर चोराहे से लेकर मुजफ्फरनगर तक रात के अंधेरे में लाठी गोली व हैवानियत का जुल्म ढाये। जिससे न केवल भारतीय संस्कृति व लोकतंत्र कलंकित हुआ अपितु भारतीय संविधान की रक्षा की कसम खाने वाली खाकी बर्दी व नौकरशाह पूरी तरह दागदार हो गयी। पुलिस प्रशासन के लोगों गोलीकाण्ड में 7 आंदोलनकारी शहीद हुए व दर्जनों घायल हुये।
रामपुर तिराहे में उप्र सरकार की हैवानियत मारे गये अमर बलिदानी सूर्य प्रकाश थपलियाल(मुनि की रेती), राजेश लखेडा(अजबपुरकला-देहरादून), रवींन्द्र सिंह रावत (नेहरू कालोनी देहरादून),राजेश नेगी(भानिवाला देहरादून),सतेंन्द्र चैहान(सेलाकुई, देहरादून,), गिरीश भद्री (अजबपुर खुर्द, देहरादून) व अशोक कुमार कैशिव(ऊखीमठ-रूद्रप्रयाग)। इस सरकारी नरसंहार की देश विदेश में कडी भत्र्सना की गयी। इस काण्ड से पूरे उतराखण्ड में राव मुलायम जहां खलनायक के रूप में लोगों के लिए धृणा के पात्र बने वंही इस प्रकरण से पूरा उतराखण्ड उद्देल्लित व आक्रोशित हो गया। इसके विरोध में व्याप्त जनांक्रोश पर अंकुश लगाने के लिए पहली बार उतराखण्ड के पर्वतीय कस्बों में भी कफर््यू भी लगाया गया। इस प्रकरण से एक प्रकार पर्वतीय क्षेत्र से उप्र की पुलिस अधिकांश स्थानों से गायब सी हो गयी।  इस प्रकरण में राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन, राष्ट्रीय महिला आयोग सहित सभी ने इस प्रकरण पर मुलायम सरकार की भत्र्सना की। परन्तु कुछ समय बाद सभी राजनैतिक दल इस प्रकरण को भूल गये।
इस मामले में भारत की सबसे बडी सरकरी जांच ऐजेन्सी केंद्रीय जांच ब्यूरों व इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिन उप्र पुलिस व प्रशासन के लोगों को गुनाहगार बताया, उनको सजा दिलाने में सर्वोच्च न्यायालय के साथ उतराखण्ड, उप्र व केंद्र सरकार विफल रही। जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस प्रकरण काो नाजी अत्याचारों के समकक्ष रखते हुए तत्कालीन उप्र व केंद्र सरकार को गुनाहगार मानते हुए उनको संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करने की फटकार भी लगाई थी। परन्तु हैरानी की बात यह है कि इस काण्ड पर संसद से सडक पर घडियाली आंसू बहाने वाली भाजपा, कांग्रेस, सपा व बसपा की सरकारों ने इस काण्ड के गुनाहगारों को सजा दिलाने के लिए ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन करने के बजाय इन गुनाहगारों को महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करने व लाल कालीन बिछाने का कृत्य कर पीडित उतराखण्डियों के जख्मों को कुरेदने का कार्य किया। इन प्रकरणों में समय रहते हुए मजबूत पैरवी न करने से यह मामला एक प्रकार से बेहद कमजोर हो गया है। उतराखण्डियों को गहरा धक्का तब लगा जब इस काण्ड के गुनाहगारों को सजा दिलाने के लिए उतराखण्ड की सरकारों के साथ भारतीय जनता पार्टीी की उप्र व केंद्र की सरकार ने नजर फेर ली।
इसके बाद उतराखण्ड राज्य गठन आंदोलन को नई धार देते हुए उक्रांद के तेज तरार नेता दिवाकर भट्ट ने अपने संगठन के प्रमुख पूरण सिंह डंगवाल के साथ श्रीयंत्र टापू श्रीनगर में आंदोलन किया। जिसको पुलिसिया दमन से रौंदने की धृष्ठता तत्कालीीन मुलायम सरकार ने पुन्न की। पुलिसिया दमन में आंदोलनकारी यशोधर बेंजवाल व राजेश रावत मारे गये। पूरण सिंह डंगवाल सहित 55 आंदोलनकारियों को अमानवीय यातनायें दे कर सहारनपुर जेल में बंद किया गया। इनके बलिदान से पूरा उतराखण्ड उद्देलित व आक्रोशित हो गया।
उतराखण्ड राज्य गठन जनांदोलन को रौंदने के लिए उतराखण्ड में भले ही तत्कालीन उप्र की मुलायम आदि सरकारों ने पुलिसिया दमन के बल पर आंदोलन पर अंकुश लगाने का कार्य किया। परन्तु देश की राजधानी दिल्ली में संसद की चैखट पर 16 अगस्त 1994 से निरंतर चल रहा उतराखण्ड राज्य गठन का अखण्ड आंदोलन की लौ को उतराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा (उतराखण्ड आंदोलन संचालन समिति व उतराखण्ड जन संघर्ष मोर्चा ) ने तमाम पुलिसिया दमन व राजनैतिक दलों के षडयंत्रों को विफल करते हुए आंदोलन की लौ को प्रचण्ड रूप से जागृत करे रखा। देश के राज्य गठन के इतिहास में सबसे लम्बा व सफल धरना प्रदर्शन करके उतराखण्ड के आंदोलनकारियों ने सरकार व राजनैतिक दलों को 27 जुलाई 2000 को उप्र पुनर्गठन विधेयक 2000 के नाम से लोकसभा में प्रस्तुत किया। जिसके तहत 9 नवम्बर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में उतराखण्ड नया राज्य बन गया। हालांकि दलीय श्रेय लेने की संकीर्ण मानसिकता व दुराग्रह के कारण तत्कालीन भाजपा सरकार ने इसका नाम बदल कर उतरांचल कियया और इसके भौगोलिक सीमाओं के साथ छेडछाड भी किया। हरिद्वार कुंभ क्षेत्र के बजाय पूरे हरिद्वार जनपद को उतराखण्ड में सम्मलित किया गया। इसके साथ प्रदेश गठन से पूर्व सर्व सम्मति से राजधानी के लिए गैरसैंण तय किये जाने के बाबजूद तत्कालीन भाजपाा सरकार ने जानबुझ कर देहरादून में अस्थाई राजधानी के नाम पर उतराखण्ड के साथ खिलवाड किया। इसके अलावा प्रदेश के हक हकूकों, के साथ खिलवाड कर मूल निवास व भू कानून भी न बना कर प्रदेश में घुसपेटियों व अपराधियों की घुसपेट का रास्ता बनाये रख कर उतराखण्डियों की आशाओं पर बज्रपात  किया।

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