उत्तराखंड

उत्तराखंड में ‘मूल निवास’ और ‘भू-कानून’ को लेकर क्यों सड़कों पर हैं लोग?

वरिष्ठ पत्रकार  चारू तिवारी 

उत्तराखंड में इन दिनों एक नई तरह की बैचेनी है। उत्तराखंड में ‘मूल निवास’ और ‘भू-कानून’ को लेकर लोग सड़कों पर हैं। अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर जनता ने पिछले दिनों जिस तरह की एकजुटता दिखाई है, वह बताती है कि राज्य बनने के दो दशक बाद नीति-नियंताओं ने हमें वहीं लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से राज्य की मांग शुरू हुई थी। इस बैचेनी की एक ही वजह है कि हमने जिन प्रतिनिधियों को सत्ता सौंपी वे कभी भी हमारी आकांक्षाओं को समझ नहीं पाये। अपने राजनीतिक हितों के लिये हमेशा हमारी उपेक्षा करते रहे। हम जब उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़ रहे थे तो हमें लगता था कि लखनऊ और दिल्ली में बैठे नीति-नियंता हमारे भूगोल को नहीं जानते। हमारे जंगल, नदी और जमीन के बारे में नहीं जानते। हमारी भाषा-संस्कृति को नहीं समझते। उन्हें हमारी मां-बहनों के कष्टों का अहसास नहीं है। हमारे युवाओं के सपनों का भान नहीं है। इसलिये वह हमारे अनुरूप नीतियां नहीं बनाते। इसी कारण उत्तर प्रदेश के आठ पर्वतीय जिले पिछड़ रहे हैं। लोग पलायन कर रहे हैं। तब हमने सोचा कि हम एक अलग राज्य बनायेंगे। इसमें अपने लोग होंगे। नीतियां बनाने वाले वे लोग होंगे जो पहाड़ के गांव-गधेरों को जानते हैं। लगभग चालीस साल के संघर्ष और 42 शहादतों, जिनमें हमारी दो बहिनों बेलमती चौहान और हंसा धनाई ने भी अपनी शहादत दी के बाद 9 नवंबर, 2000 को हमें देश के सत्ताइसवें राज्य के रूप में उत्तराखंड राज्य मिला। बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि अब चपरासी से लेकर मुख्य सचिव और ग्राम प्रधान से लेकर मुख्यमंत्री तक अपने ही हैं, लेकिन उत्तराखंड को लीलने-छीलने और लोगों को पहाड़ से खदेड़ने के पूरे इंतजाम इन तैईस वर्षोंं में और खतरनाक तरीके से हमारे सामने आये हैं।

साथियो, उत्तराखंड राज्य के सपनों पर तुषारापात और जन आकांक्षाओं के दमन के प्रतिकार के रूप में उत्तराखंड से इस समय एक बड़ी ‘धात’ लगी है। यह ‘धात’ है अपने अस्तित्व और स्वाभिमान को बचाने की। पहले हम अपनी मूलभूत जरूरतों के लिये लड़ रहे थे, अब हमारे सामने अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती है। इस समय इन चुनौतियों को हम दो मुद्दों को संबोधित करते हुए देख रहे हैं। पहला है ‘उत्तराखंड में मूल निवास’ और दूसरा, राज्य में एक ऐसा सशक्त ‘भू-कानून’ बने जो हमारी कृषि जमीन को बचाने का काम करे। ये दोनों मुद्दे इस आंदोलन के केन्द्र में हैं। इन्हीं के आलोक में हम पहाड़ की उन आकांक्षाओं और सपनों को देखते हैं जो हमारे शहीदों ने देखे थे। ये दोनों मांगें नई नहीं हैं। ये हमारे संविधान प्रदत्त अधिकार हैं, जो हमें राज्य बनने से पहले मिले थे। राज्य बनने के बाद सरकारों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिये इन दोनों मुद्दों को इतना उलझा दिया कि अब लोगों को इनकी बहाली के लिये सड़कों पर उतरना पड़ रहा है।

‘मूल निवास’ को लेकर क्यों है तकरार?
उत्तराखंड में ‘मूल निवास’ को लेकर पिछले कई सालों से असंतोष पनप रहा है। कोविड के बाद जब लोग अपने गांव वापस जाने लगे तो उन्हें राज्य बनने के बाद पहली बार अपने हक-हकूकों के छिनने का अहसास हुआ। उन्होंने नये सिरे से इन्हें जानने की कोशिश शुरू की। ‘मूल निवास’ भारतीय संविधान में प्रत्येक राज्य को दिया गया वह संवैधानिक प्रावधान है, जो उसे अपने राज्य का मूल नागरिक होने का अधिकार देता है। इस अधिकार से वह उन सभी सुविधाओं और अवसरों का पहला हकदार होता है जो सरकारें समय-समय पर वहां की जनता को देती हैं। लेकिन, उत्तराखंड में इन सुविधाओं को बढ़ाने के की बजाए पहली अंतरिम सरकार से लेकर आज तक की चुनी हुई सरकारों ने इसे समाप्त करने का काम किया। इस आंदोलन की मांग है कि उत्तराखंड में मूल निवास की सीमा 1950 लागू की जाये।

उत्तराखंड के लोगों की यह मांग अप्रत्याशित नहीं है। हमारे देश में संविधान लागू होने के साथ 1950 में यह प्रावधान किया गया था कि जो व्यक्ति संविधान लागू होने के वर्ष यानि 1950 में जिस राज्य में रह रहा था, वह वहां का मूल निवासी माना जायेगा। इसके लिये देश का प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन जारी हुआ था। इसी प्रावधान का 1961 में राष्ट्रपति ने दुबारा नौटिफकेशन किया क्योंकि साठ के दशक में और राज्यों का निर्माण हुआ। इसी नौटिफिकेशन के आधार पर आरक्षण और अन्य योजनाएं चलाई गई जिनका लाभ उस राज्य के मूल निवासियों को मिल सके। यह अभी पूरे देश में हर राज्य में लागू है।

राज्य बनने के बाद जब नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व में पहली अंतरिम सरकार बनी तो उसने यहां के निवासियों को ‘मूल निवासी’ मानने से ही इंकार कर दिया। इस सरकार ने ‘मूल निवासी’ और ‘स्थाई निवासी’ को एक ही मानते हुए इसकी समय सीमा (कट आॅफ डेट) 1985 तय कर दी। इसके बाद राज्य में ‘मूल निवास’ की जगह ‘स्थाई निवास’ की व्यवस्था लागू हो गई। इससे यहां के निवासियों के हकों पर हमला हुआ। कट आॅफ डेट 1985 होने के कारण बड़ी संख्या में वे लोग भी स्थानीय हकों के हकदार हो गये जो 15 वर्ष पहले से राज्य में रह रहे थे।

उत्तराखंड में राज्य बनने के बाद लगातार मूल निवास को 1950 करने की मांग उठती रही। इस मामले में एक अच्छा संकेत 2010 में मिला जब मूल निवास संबंधी एक याचिका पर भारत के उच्चतम न्यायालय और उत्तराखंड की हाईकोर्ट ने देश में एक ही अधिवास की व्यवस्था यानि मूल निवास को जारी रखते हुए, उत्तराखंड में भी 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को सही माना। उस समय उत्तराखंड हाईकोर्ट में ‘नैना सैनी बनाम उत्तराखंड राज्य’ और उच्चतम न्यायालय में ‘प्रदीप जैन बनाम भारत सरकार’ ने दो अलग-अलग याचिकाओं में कहा कि उत्तराखंड राज्य के गठन के समय यहां निवास करने वाले व्यक्ति को मूल निवासी माना जाये, लेकिन दोनों अदालतों ने इसे नहीं माना और 1950 के प्रावधान को ही लागू रखा। यह फैसला उत्तराखंड के नागरिकों के लिए बहुत राहत भरा था, लेकिन 2012 में इसी मामले से जुड़ी एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट की एकल पीठ ने फैसला सुना दिया कि 9 नवंबर, 2000 यानि राज्य गठन के दिन जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा है वह यहां का मूल निवासी माना जाएगा। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उस फैसले को मान लिया। एकल पीठ के इस फैसले के खिलाफ न वो हाईकोर्ट में गई और न उसने न्यायालय का दवाजा खटखटाया।

उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के दिये गये फैसलों की रोशनी में राज्य सरकार ने हालांकि 2010 से ही इस मुद्दे को समाप्त कर देना था। बाद में 2012 में जिस याचिका पर राज्य गठन यानि 2000 को कट आॅफ डेट तय करने के एकल पीठ के फैसले को चुनौती देनी थी, लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ऐसा नहीं किया। यह चुनौती इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि यह फैसला कि ‘उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियिम-2000’ की धारा-24 और 25 के अधिनियम-5 एवं 6 अनुसूची के साथ प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन का उल्लंघन भी था। लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया और राज्य में स्थाई निवास की व्यवस्था पूरी तरह से लागू हो गई। इसके लागू होने से यहां के निवासियों के स्थानीय संसाधनों पर अधिकार और सरकारों द्वारा समय-समय पर दी जाने वाली रियायतें सीमित हो गई हैं, क्योकि कट आॅफ डेट 1985 होने से बड़ी संख्या में वे लोग भी स्थाई निवासी से हक पाने के अधिकारी हो गये हैं जो 1985 या 2000 से उत्तराखंड में रह रहे हैं। पहले से ही पलायन की मार झेल रहे उत्तराखंड जैसे सीमित अवसरों वाले राज्य के लिए यह अपने अस्तित्व को बचाने के सवाल के साथ जुड़ गया है।

क्यों चाहिए सशक्त भू-कानून?
साथियो, उत्तराखंड में जमीनों का सवाल उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना हमारे जीने का। हमारी संस्कृति, इतिहास, भाषा, साहित्य, गीत-संगीत भी तभी है जब हमारी जमीन बची रहेगी। हमारे गांव बचे रहेंगे। इन्हीं में हमारी देवी-देवता बसते हैं, इन्हीं से हमारी थाती है। दुर्भाग्य से नीति-नियंताओं ने सबसे पहले हमें हमारी जमीन से बेदखल करने का काम किया। नीति-नियंता भले ही लोगों के लिये गांव रुकने की नीतियां न बना पाये हों, लेकिन अपनी कमजोरी को छुपाने के लिये जनता को पलायन के लिए जिम्मेदार ठहराने में सफल हुये हैं। राज्य से पलायन ‘व्यक्तिजनित’ नहीं, बल्कि ‘नीतिजनित’ है।

उत्तराखंड के लिए सबसे चिंता का विषय यह है कि सरकारों की जनविरोधी भू-कानूनों से राज्य में कृषि योग्य जमीन का रकवा लगातार घटता रहा है। राज्य में मौजूदा समय में मात्र 4 प्रतिशत भूमि पर खेती हो रही है। हमारे पास अधिकतम 6 प्रतिशत खेती योग्य जमीन बची है। राज्य के पास कुल भूमि के रकवे में 63 प्रतिशत वन, 14 प्रतिशत कृषि, 18 प्रतिशत बेनाप-बंजर और 5 प्रतिशत बेकार अथवा अयोग्य जमीन है। अंग्रेजों ने हमारी जमीनों की 11 बार पैमाइश कराई थी। आजादी के बाद 1964 में आखिर आधी-अधूरी पैमाइश कराई। यही हमारे जमीनों की अनुमानित आंकड़ों को बताती है। आजादी के एक दशक बाद 1960 में ‘कुमाऊं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून’ (कूजा एक्ट) आया तो इसने खेती के विस्तार के सारे रास्ते रोक दिये। इस कानून के तहत सारे विकास कार्यों के लिये किसानों की नाप भूमि निःशुल्क सरकार को देने की शर्त लगा दी। उसने बड़ी तेजी के साथ यहां की खेती योग्य जमीन को लीलना शुरू किया। उसका परिणाम यह हुआ कि राज्य की 7 प्रतिशत से ज्यादा कृषि योग्य जमीन सरकार के खाते में चली गई है। शहरों, कस्बों और सड़कों के का 50 से 200 गुना तक जो विस्तार हुआ वह भी कृषि भूमि पर ही हुआ। बड़ी बांध परियोजनाओं में नदी-घाटियों की बड़ी जमीनें गई हैं। सिर्फ टिहरी बांध परियोजना पर ही कुल कृषि भूमि का 1.50 प्रतिशत हिस्सा चला गया। अब पंचेश्वर बांध परियोजना में 134 गांवों की जमीनों पर खतरा मंडराने लगा है। राष्ट्रीय पार्कों, वन विहारों के विस्तार से लोगों को उनकी जमीन से अलग किया गया है। इसलिए हमारी पहली मांग यह है कि उत्तराखंड में जमीनों की पैमाइश कर गलत तरीके से वन विभाग और सरकारी खातों में चली गई जमीनों को मुक्त कराकर उसे कृषि भूमि में शामिल किया जाये।

इन अचंभित करने वाले आंकड़ों के बावजूद सरकारों ने हमारी जमीनों को एकमुश्त बेचने का इंतजाम कर दिया। त्रिवेन्द्र रावत के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने 6 दिसंबर, 2018 को ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 (अनुकलन एवं उपरांतरण आदेश 2001) (संशोधन) अध्यादेश-2018’ को विधानसभा में रखा था। इस अध्यादेश ने नये भूमि कानून का रूप लेकर पहाड़ों में जमीनों की बेतहाशा लूट का रास्ता खोल दिया। पहले इस अधिनियम की धारा-154 के अनुसार कोई भी कृषक 12.5 एकड़ यानि 260 नाली जमीन अपने पास रख सकता था। इससे अधिक जमीन पर सीलिंग थी। नये संशोधन में इस अधिनियम की धारा 154 (4) (3) (क) में बदलाव कर दिया गया। नये संशोधन में धारा 154 में उपधारा (2) जोड़ दी गई है। अब इसके लिये कृषक होने की बाध्यता समाप्त कर दी गई है। इसके साथ ही 12.5 एकड़ की बाध्यता को भी समाप्त कर दिया गया। अब कोई भी व्यक्ति किसी भी उद्योग के प्रयोजन के लिये कितनी भी जमीन खरीद सकता है।

इतना ही नहीं नये संशोधन में अधिनियम की धारा-143 के प्रावधान को भी समाप्त कर दिया गया। पहले इस अधिनियम के अनुसार कृषि भूमि को अन्य उपयोग में बदलने के लिये राजस्व विभाग से अनुमति जरूरी थी। इस संशोधन के माध्यम से इस धारा को 143 (क) में परिवर्तित कर दिया गया। अब अपने उद्योग के लिये प्रस्ताव सरकार से पास कराना है। इसके लिये खरीदी गई कृषि जमीन का भू-उपयोग बदलने की भी जरूरत नहीं है। इसे बहुत आसानी से अकृषक जमीन मान लिया जायेगा। इस संशोधन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह पहाड़ में उद्योग लगाने के लिये किसी भी निवेशक को जमीन खरीदने की छूट प्रदान करती है। इससे आगे बढ़कर सरकार ने इसी कानून की धारा-156 में संशोधन कर तीस साल के लिये लीज पर जमीन देने का अध्यादेश पास किया है। इससे समझा जा सकता है कि कृषि से रोजगार देने की बात करने वाली सरकारों के दावे कितने खोखले हैं। इसलिए हम मांग करते हैं कि सरकार ने 2018 में भू-कानून में जो संशोधन किए हैं, उन्हें तुरंत रद्द किया जाय।

उत्तराखंड को छोड़कर देश के अन्य हिमालयी क्षेत्रों की संवेदनशीलता को समझते हुये यहां बहुत सख्त भू-कानून बनाये गये हैं। जम्मू-कश्मीर में संविधान की धारा-370 और 35-ए (अब हटा दी गई हैं) से जमीनों की खरीद-फरोख्त पर रोक थी। पूर्वोत्तर के राज्यों में धारा-371 के माध्यम से जमीनों को बचाया गया है। हमारे पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में ‘हिमाचल प्रदेश टेंनसी एंड लैंड रिफाॅम्र्स एक्ट-1972‘ के 11 वें अध्याय में ‘कंट्रोल आॅन ट्रांसफर आॅफ लैंड’ में धारा-118 है। इस धारा के अनुसार हिमाचल में किसी भी गैर कृषक को जमीन हस्तांतरित नहीं की जा सकती है। इसका मतलब यह भी हुआ कि किसी भी कृषि जमीन को हिमाचल का रहने वाला ही गैर कृषक भी नहीं खरीद सकता। इसी धारा का 38-ए का सैक्शन-3 यह भी कहती है कि कोई भी भारतीय (गैर हिमाचली) रिहायशी जमीन खरीदने के लिये आवेदन कर सकता है। इसकी सीमा भी 500 स्क्वायर मीटर होगी। लेकिन इसके लिये भी सरकार से इजाजत लेनी पड़ेगी। गैर हिमाचली सरकारी कर्मचारी भी अगर अपना आवास बनाना चाहें तो उनके साथ भी हिमाचल में तीस साल की सरकारी सेवा का प्रमाण पत्र होना चाहिये।

सिक्किम की ‘दि सिक्किम रेग्युलेशन आॅफ ट्रांसफर आॅफ लैंड (एमेंडमेंट) एक्ट-2018 की धारा-3 (क) में यह प्रावधान किया गया है कि लिम्बू या तमांग समुदाय में ही जमीन खरीदी या बेची जा सकती है। इसमें भी यह प्रावधान किया गया है जमीन बेचने वाले को कम से कम तीन एकड़ जमीन अपने पास रखनी होगी। यह प्रावधान इसलिये किया गया कि जो जमीन बेच रहा है वह भूमिहीन न रहे। इसमें यह भी प्रावधान है कि केन्द्र द्वारा अधिसूचित ओबीसी को अपने पास तीन और राज्य द्वारा अधिसूचित ओबीसी को दस एकड़ जमीन अपने पास रखनी होगी। मेघालय में जमीनों की खरीद-फरोख्त पर पाबंदी है। ‘दि मेघालय ट्रांसफर आॅफ लैंड (रेग्युलेशन) एक्ट 1971 में प्रावधान है कि कोई भी जमीन आदिवासी को नहीं बेची जा सकती।

साथियो, मूल निवास और सशक्त भू-कानून की जरूरत और उससे उपजे असंतोष की यह एक बानगी भर है। इन संक्षिप्त आंकड़ों और मौजूदा कानूनों से हम समझ सकते हैं कि किस तरह उत्तराखंड के लोगों को उनकी जमीन से अलग किए जाने की साजिशें होती रही हैं। अगर समय रहते इसका प्रतिकार नहीं किया गया तो हमारे सामने अपने अस्तित्व को बचाने का संकट खड़ा होने वाला है। इन्हीं सब चिंताओं को लेकर पिछले दिनों युवाओं की ओर से जो प्रतिकार की गूंज पूरे उत्तराखंड से उठी है, उसका प्रभाव प्रवासियों पर पड़ना स्वाभाविक है, जो पलायन की त्रासदी को सबसे ज्यादा झेलते हैं। उत्तराखंड की हर हलचल का राजधानी दिल्ली और अन्य शहरों पर गहरा असर होता है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन में भी दिल्ली की महत्वपूर्ण भूमिका रही। पिछले समय में जब भू-कानून या अंकिता भंडारी वाले मामले भी यहां के लोगों ने प्रभावी हस्तक्षेप किया था। हमारे बहुत सारे साथी देहरादून की महारैली में शामिल हुए थे। इस पूरी लड़ाई में शामिल होने और इसे मुकाम तक पहुंचाने के लिए हम सब लोग एकजुट हो रहे हैं। आप सबसे अपील है कि उत्तराखंड के अस्तित्व को बचाने और स्थानीय संसाधनों की लूट के खिलाफ आप सब लोग इस आंदोलन का हिस्सा बनें जो हमारी पीढ़ियों की बेहतरी का रास्ता निकालेगा। हमें उम्मीद है कि हमेशा की तरह हम सब लोग मिलकर इस आंदोलन को सफल बनायेंगे।

 

(साभार:-मूल निवास-भू कानून संयुक्त संघर्ष समिति, नई दिल्ली के द्वारा जनहित में जारी आवाहन)

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