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जिस गुलामी के कलंक राष्ट्रमंडल को अमेरिका ने दुत्कारा उसे भारत ने 75 सालों से बेशर्मी से माथे पर क्यों लगाया?

राष्ट्रमंडल खेल ने फिर कुरेदे  भारतीय  स्वाभिमान के जख्म

आजादी के जंग की  नजमा व जॉर्ज के द्वंद की यादें ताजा हुई

देव सिंह रावत

इन दिनों ब्रिटेन के बर्मिंघम में  अंग्रेजों के पूर्व गुलाम देशों की खेल प्रतियोगिता राष्ट्रमंडल खेल 2022 की धूम मची है। भारतीय खिलाड़ी हालांकि 54 देशों की इस पदक तालिका में छठे नंबर पर है परंतु भारतीय जनमानस इस प्रतियोगिता की कुछ पदक हासिल करने से तमाम तथाकथित लोकतंत्र व राष्ट्रवादी समर्थक बेशर्मी से गदगद है। देश के प्रधानमंत्री से लेकर सभी लोग किस खेल प्रतियोगिता उपलब्धियों को देश का गौरव बता रहे हैं। अंग्रेजों के पूर्व गुलाम देशों के इस संगठन राष्ट्रमण्डल की प्रमुख आज भी ब्रिटेन की ही महारानी है। भले ही वर्ष 2001 में राष्ट्रमण्डल खेलों द्वारा मानवता, समानता और नियति की तीन मान्यताओं के प्रसार किया जाता है। पर हकीकत यह है कि इन राष्ट्रमण्डल खेल प्रतियोगिता का शुभारंभ ही  क्वीन्स बेटन रिले यानि ओलम्पिक टोर्च की तरह से औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं। राष्ट्र मण्डल खेलों की शुरूआत ही महाराजा जार्ज पंचम की ताजपोशी के उपलक्ष्य में 1911 में आयोजित हुये “फेस्टिवल ऑफ एम्पायर” के आयोजन से ही इसका विचार आया। वर्तमान में यह संगठन धरती के 20 प्रतिशत भूभाग और 33 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं.

जो खेल का प्रारम्भ इन खेल प्रतियोगिता के प्रति भारतीय गुलाम मानसिकता को देखकर देश की आजादी के लिए दशकों से धधक रहे मेरे दिल की जख्मों को फिर बुरी तरह से कुरेद दिया है। मुझे इस बात थे शर्म महसूस होती है कि जब अमेरिका जैसा स्वाभिमानी देश 150 साल तक अंग्रेजों का गुलाम रहा जब उसने राष्ट्रमंडल की गुलामी के प्रतीक को दुत्कारने का काम किया तो हमारे देश भारत ने किसके दवाब या मजबूरी के कारण हमने उस गुलामी के कलंक को विगत 75 साल से देश के माथे पर लगा रखा है। खासकर उन अंग्रेजों की गुलामी का बोध कराने वाले संगठन राष्ट्रमण्डल को जिन्होंने लाखों भारतीयों का कत्लेआम किया 200 साल तक देश को गुलाम बनाया, भारत की अरबों खरबों की अकूत संपत्ति को लूटा और 1947 में भारत से जाने से पहले भारत की दो टुकड़े निर्मलता से किये। उन अंग्रेजो की दासता का बोध कराने वाले संगठन का सदस्य बनकर देश के स्वाभिमान, आजादी व लाखों उन सपूतों के बलिदान -संघर्ष का घोर अपमान किया गया जिन्होने देश की आजादी व फिरंगियों के जुल्म के खिलाफ अपना पूरा जीवन दाव पर लगा दिया। कम से कम स्वाभिमानी अमेरिकियों से तो देश के हुक्मरान सीख लेते।
बचपन से ही मैंने खुद को देश की आजादी की जंग में खुद को समर्पित पाया। मुझे समझ में नहीं आता था फिर जिस देश को अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने नाम व अपने इतिहास से  वंचित की किया गया  हो वह देश आजाद कैसे? जिस देश में अपने देश की भाषाओं में मानक शिक्षा, रोजगार, न्याय, शासन व सम्मान नहीं मिलता हो यह सब उन्हीं आक्रांता अंग्रेजों यानि विदेशी भाषा अंग्रेजी में आजादी के तथाकथित 75वें वर्ष भी दिया जाता हो वह आजाद कैसा? इसी मनाक्रोश के चलते मेने 1989 को संसद  में देश के हुक्मरानों को धिक्कारा। इसी के चलते हुए मैने संसद की चैखट पर भारतीय भाषा आंदोलन के बेनरतले अपने साथियों के साथ आजादी का ऐतिहासिक संघर्ष (वर्षों तक संसद की चैखट जंतर मंतर पर अखंड धरना, पुलिसिया दमन, रामलीला मैदान से शहीद पार्क दिल्ली, संसद मार्ग व दो वर्ष तक संसद की चैखट जंतर मंतर से प्रधानमंत्री कार्यालय तक प्रतिदिन कार्यदिवस पर पदयात्रा व ज्ञापन देने का सत्याग्रह चलाया) किया। परन्तु देश के हुक्मरानों के दिलो दिमाग में गुलामी का ऐसा मायाजाल है कि देशहित के शांतिपूर्ण आंदोलनों की सुनवाई करके देश के माथे पर लगे गुलामी के कलंक को मिटाने के बजाय राष्ट्रभक्तों को पुलिसिया दमन से खदेडे का कृत्य बेशर्मी से किया गया। परन्तु तथाकथित तमाम लोकशाही के ध्वजवाहक बने राष्ट्रवादी राजनैतिक दल, संगठन, समाजसेवी बुद्धिजीवी, लोकशाही के तथाकथित चोथा स्तम्भ कहलाने वाला समाचार जगत बेशर्मी से धृतराष्ट्र की तरह मूक तमाशबीन बना रहा।
इस राष्ट्रमण्डल खेलों की इस प्रतियोगिता ने आजादीे की इस जंग में मेरे एक जख्म को फिर हरा कर दिया। मामला 1990 के बाद का था दिल्ली में राष्ट्रमण्डल देशों के संसदीय सम्मेलन हो रहा था। उन दिनों मैं उतराखण्ड राज्य गठन जनांदोलन में जंतर मंतर में अखण्ड धरना दे रहा था। खबर आयी कि इस राष्ट्रमण्डल देशों के संसदीय सम्मेलन की उस समय अध्यक्षता कर रही भारत की तत्कालीन राज्यसभा उपसभापति नजमा हेपतुल्ला ने उस समय के तेजतरार नेता जार्ज फर्नाडिस को इस सम्मेलन में हिंदी में बोलने से रोक दिया। जिससे विवाद हुआ। इसी विवाद से खिन्न हो कर मैने अपने संगठन ‘भारतीय मुक्ति सेना’ के बेनरतले अपने समाजवादी नेता गौतम, राणा आदि अनैक मित्रों के साथ  नजमा हेपतुल्ला व सेंट कारमल स्कूल चाणाक्यपुरी दिल्ली के प्रा़़द्यानाचार्य ( जिसने अपने विद्यालय के एक भारतीय भाषा बोल रहे छात्र को दण्डित करने का दुशाहस किया) की गिरफ्तारी की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। मुझे इस बात की हैरानी थी कि एक खुद को आजाद कहने वाले देश में उसी देश की प्रमुख भाषा में बोलने वाले को प्रताडित व अपमानित करने का दुशाहस व धृष्ठता इस देश में की जाती है। और जबरन इस देश में आक्रांता की भाषा बोलने के लिए मजबूर किया जाता है।

उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों ंके पूर्व गुलाम देशों का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है जिसे  राष्ट्रमंडल संगठन कहते हैं। े राष्ट्रमंडल की के आधुनिक स्वरूप की स्थापना स्थापना 28 अप्रैल 1949 को की गयी थी। इसकी नींव यह मूल रूप से 1926 के शाही सम्मेलन में बाल्फोर घोषणा के माध्यम से राष्ट्रों के ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के रूप में बनाया गया था, और 1931 में वेस्टमिंस्टर की संविधि के माध्यम से यूनाइटेड किंगडम द्वारा औपचारिक रूप से तैयार किया गया था। राष्ट्रमण्डल संगठन में 19 देश अफ्रीका महाद्वीप से हैं इसके बाद 13 देश उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप से हैं,11 देश प्रशांत क्षेत्र से, 7 देश एशिया महाद्वीप से और सबसे कम केवल 3 देश यूरोप महाद्वीप से हैं
हालांकि इस संगठन में अमेरिका सम्मलित नहीं हुआ। हालांकि 16वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने  अमेरिका को भी अपना गुलाम बनाया । अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के लिए अमेरिकनों ने लंबा संघर्ष किया आखिरकार 150 साल अंग्रेजों का गुलाम रहने के बाद 4 जुलाई 1776 को अमेरिका को आजादी मिली। हालांकि इसमें वर्तमान में 53 सदस्य इसके सदस्य है इसमें रवांडा और मोजाम्बिक देश जो कभी ब्रिटेन के गुलाम नहीं रहे वे भी इसके सदस्य बने है। परन्तु अमेरिका ने इस गुलामी को ढोने से मना कर दिया। वह कभी इसका सदस्य नहीं बना।

राष्ट्रमण्डल संगठन अनेक उप संगठनों में सदस्य देशों के बीच कार्य करता है। इसमें  राष्ट्रमंडल खेल या कॉमनवेल्थ गेम्स हालांकि प्रथम राष्ट्रमण्डल खेल प्रतियोगिता कनाडा के हैमिलटन शहर व ओटेरियों में  1930 में आयोजित किए गए और इसमें 11 देशों के 400 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। वर्तमान काल में हर चार वर्ष में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन किया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इनका आयोजन नहीं किया गया था।
सबसे यज्ञ प्रश्न यह है कि भारतीयों के मन से ब्रिटीश गुलामी का भूत कब उतरेगा। कहने को यहां अनैक राष्ट्रवादी संगठन, दल व बुद्धिजीवी हैं परन्तु अंग्रेजी गुलामी के लिए ऐसे समर्पित है कि मानो अंग्रेजी भाषा व संस्कृति इनके प्राण हो। मैकाले ने भारतीय संस्कृति के साथ बुद्धि भी ऐसी जमीदोज कर दी कि अंग्रेजों से मुक्ति के 75 साल बाद भी इनका जमीर नहीं जागा जो अमेरिका का 75 साल पहले जाग गया था।

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