उत्तर प्रदेश

खुद को जानने वाला ही शिक्षित व सुखी है। दुनिया की गिनती में उलझा व्यक्ति ही अशिक्षित व दुखी है

 

अमृतवाणी

देव सिंह रावत

इस संसार में लोग गिनती में उलझे रहते हैं कि संसार में कितने देवता हैं? अमेरिका में लोग इन दिनों और राष्ट्रपति को मिले मतों की गिनती में उलझे हुए हैं वहीं कुछ लोग  भारत सहित  संसार में लोग कितने हैं?कुछ लोग धन की गिनती में उलझे हुए हैं। कुछ लोग जाति की गिनती में उलझे हुए हैं ।कुछ लोग धर्म की गिनती पर उलझे हुए हैं ।कुछ लोग पदों की गिनती पर उलझे हुए हैं ।कुछ लोग दूसरों  की गिनती  से उलझे हुए हैं। परंतु जिस सबसे बड़ी उलझन से इंसान को जीवो को उलझना चाहिए उससे संसार के अधिकांश लोग नहीं उलझते है। पर जो भी इस सवाल सेे उलझा वह तर गया ।वह शिक्षित हो गया। सुख के सागर में गोते लगाने लग गया। परंतु जो दूसरे सवालों में उलझे रहे वे खुद की जीवन के साथ दुनिया को भी दुखालय ही बनाने में ही लगे रहे।

हां आज जिस प्रश्न के कारण या विचार आपके सम्मुख रखा हूं उस पर लौटते हैं। प्रश्न किया था कि देवता कितने हैं? कोई 33 करोड़ कहता है। कोई 33 कोटी   बताता।कोई कहता है कि 84  लाख योनियां है ।कोई कहता है कितने मनुष्य हैं? कितने प्रकार के पशु पक्षी हैं? यह  जिज्ञासा हो सकती है। इसको शांत किया जा सकता है ।पर इसी  उधेड़बुन में जीवन को लगाना कहीं भी हितकर नहीं है। इस संसार में लोग दूसरा सा बनने में जीवन लगा देते हैं ।

लोग, अमृत तत्व का अमृत पान करने के बजाए धन संग्रह व लोकेषणा में बर्बाद करते हैं और अधिकांश जीवन के अंतिम सांस तक  यह नहीं जान पाते हैं कि मैं कौन हूं।

आज इसी प्रकार का एक प्रश्न कि “देवता कितने हैं “हमारे साथी पूरण चंद्र कांडपाल जी  ने  प्यारा उत्तराखंड मंच पर रखा इसी के उत्तर में मैनेज भगवान श्री कृष्ण की दिव्य कृपा से जो भी लिखा वह आपके सम्मुख रखता हूं।

जिन्होंने भी देवत्व प्राप्त कर लिया है वही सभी देवता हैं। सत मार्ग में चलने वाला, सत्कर्म करने वाला और सबकी कल्याण में समर्पित रहने वाला व्यक्ति ही देवता है।

मनुष्य को इस अनंत गिनती में उलझने से बेहतर यही है वह खुद में देवत्व को प्राप्त करें, अमरत्व को प्राप्त करें व समत्व को प्राप्त करें।
संसार में अधिकांश जीव उदर पूर्ति और छुद्र संकीर्ण मनोवृत्ति की पूर्ति में ही जीवन को अज्ञानता मे ही नष्ट कर देते हैं।
अपना खुद का नहीं पता होता है कि वह कौन है ?
क्यों इस संसार में आए ?
इस सृष्टि का जीवन का उद्देश्य क्या है ?
उसकी सृजनहार कौन है?

संसार के अधिकांश लोग मात्र अक्षर ज्ञान को ही, या किताबों को पढ़ लेने हैं या लिख लेने को ही शिक्षित होने या बुद्धिजीवी होने का झूठे अहम में जीते हैं या समझते है।
परंतु जब तक स्व यानी खुद का ज्ञान न हो। जिसे प्रायः आत्मज्ञान कहते हैं।
तब तक प्राणी अज्ञानी ही रहता है और वह अंधकार में ही भटकता रहता है।
अज्ञानता ही दुखों का सागर होता है और ज्ञान ही सुखों का संसार होता है।
शत-शत वर्क को आत्मसात करने वाले इंसान विपरीत परिस्थितियां विपरीत स्थिति और दुख में भी सुख का अमृत पान करते हैं तथा आज्ञा राधा को आत्मसात करने वाले इंसान सुखों के सागर में भी रहकर दुखों से पीड़ित रहते हैं।
हां सांसारिक कार्य कुशलता से मैं प्रवीण होना इस सृष्टि में हर व्यक्ति के लिए नितांत जरूरी है। वह संसार की जितनी भी कलायें हैं
अपनी रुचि मेहता व जरूरत के हिसाब से जीव को आत्मसात करना चाहिए परंतु सभी कलाओं से युक्त होने के बावजूद अगर चीन सतत व को आत्म ज्ञान रूपी अमृत का पान नहीं करता है तो वह शिक्षित नहीं होता । वह जीवन में सफल नहीं होता। वह जीवन के उद्देश्य को साकार करने में विफल रहता है।
जब जीव शिक्षित हो जाता है हद तत्व का अमृत पान कर लेता है तब वह हो राग द्वेष हिंसा दुराग्रह व संकीर्णता से ऊपर उठकर सकल सृष्टि के कल्याण के लिए समर्पित हो जाता है।

About the author

pyarauttarakhand5