उत्तराखंड देश

प्रदेशों में गुटबाजी को हवा देकर ही खुद को मजबूत करते है दलों के आका

 
गुटबाजी से कांग्रेस ही नहीं भाजपा  व उक्रांद सहित सभी प्रमुख दल है त्रस्त
उत्तराखण्ड में राहुल गांधी की एकजूट होकर भाजपा के कुशासन के खिलाफ संघर्ष करने की सीख
प्रदेश में नेताओं की अंध महत्वकांक्षा और दलों की गुटबाजी को बढ़ावा देने की प्रवृति से मजबूत होती है गुटबाजी

देवसिंह रावत
देश की सबसे पुरानी राजनैतिक दल कांग्रेस के कार्यकारी आलाकमान राहुल गांधी 18 अगस्त को विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद पहली बार उत्तराखण्ड के दौरे पर देहरादून पंहुचे। कांग्रेस में बढ़ती हुई गुटबाजी को भांपते हुए राहुल गांधी ने कांग्रेसियों से एकजूट हो कर सत्तारूढ़ भाजपा के कुशासन के खिलाफ संघर्ष तेज करने का आवाहन किया। राहुल गांधी ने भी भाजपा की तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में विजयी होने के अभियान को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेसियों से विधानसभा चुनाव में मिली हार से निराश या हताश होने की कोई के बजाय एकजूट हो कर पुन्न सत्तासीन होने के लिए कमर कसें।

भले ही राहुल गांधी ने कांग्रेसियों ंको एकजूट होने की उपदेश दिया। परन्तु कांग्रेस में गुटबाजी का मर्ज इतना लाइलाज हो गया है कि वह अब साधारण डपट या सीख से नहीं अपितु भाजपा आला कमान की तरह ठोस कदम उठाने से ही लगेगा। भले ही राहुल गांधी के स्वागत में उत्तराखण्ड कांग्रेस के सभी गुट एकजूट हो कर राहुल गांधी जिंदाबाद व कांग्रेस जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। परन्तु यह हकीकत जग जाहिर है कि कांग्रेस प्रदेश के गठन के समय से पहले से ही गुटबाजी में बुरी तरह बंटी हुई थी। राज्य गठन के समय यह गुटबाजी जहां हरीश रावत व नारायण दत्त तिवारी के दो प्रमुख गुटों में विभाजित थी।
ऐसा नहीं है कि गुटबाजी केवल कांग्रेस पार्टी में ही है। प्रदेश में गुटबाजी से भाजपा ही नहीं उक्रांद भी परेशान रही। भाजपा में भी गुटबाजी चरम पर रही। यहां पर राज्य गठन के बाद ही सबसे मजबूत गुट भगत सिंह कोश्यारी का रहा। इसके बाद जब भाजपा नेतृत्व ने कोश्यारी के बजाय खण्डूडी को मुख्यमंत्री के रूप में थोप दिया तो उसके बाद भी गुटबाजी कम होने के बाद और मजबूत हो गयी। प्रदेश में कोश्यारी, खंडूडी व निशंक के गुटों में प्रदेश भाजपा बंट गयी। हालांकि भाजपा की केन्द्रीय नेत्री की शह पर कई बार मदन कोशिक भी सर उठाते नजर आते। परन्तु प्रदेश भाजपा इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के चारों तरफ बंटी नजर आयी।

जैसे ही मोदी युग का पदार्पण हुआ वेसे ही मोदी ने शाह से प्रदेश भाजपा की गुटबाजी की जड़ों में मट्ठा डालते हुए तीनों पूर्व को न तो केन्द्र सरकार में स्थान दिया व नहीं प्रदेश भाजपा में। उसके बाद सतपाल महाराज के आने पर तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों में खलबली मच गयी। तीनों के ही निशाने पर महाराज रहे। महाराज भी इसी कारण केन्द्रीय या प्रदेश में महत्वपूर्ण स्थान नहीं पा सके। इसके बाद बची कसर कांग्रेस से आये विद्रोही नेताओं ने पूरी कर दी। कांग्रेस के विद्रोही नेता भाजपा में आये तो पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत की उपस्थिति से भाजपा नेता खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे। चुनाव के समय यशपाल आर्य को भी भाजपा में आसीन कराया गया। प्रदेश भाजपा में इस समय विद्रोही कांग्रेसियों का बर्चस्व है। इसी पर अंकुश लगाने के लिए भाजपा नेतृत्व ने अपने भरोसेमंद त्रिवेन्द्र रावत को प्रदेश सरकार की कमान सोंप दी।

त्रिवेन्द्र रावत भले ही जनहित के मुद्दों को साकार करने में जनता की आशाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं परन्तु भाजपा के गुटवाज नेताओं पर अंकुश लगाने के लिए काफी दबंग साबित हुए। वे किसी नेता के दवाब में न आने से भाजपा के प्रदेश क्षत्रपों व कांग्रेस से आये नेताओं के दवाब में नहीं आ रहे है। कांग्रेस व वाजपेयी-आडवाणी वाले दौर में विगत 17 सालों से भाजपा व कांग्रेस में जो उछलकूद नजर आती थी उसका नजरा अभी तक भाजपा सरकार में नहीं दिखाई दे रहा है। इसका श्रेय मोदी व शाह की गुटबाज नेताओं को हाशिये पर डालने की रणनीति है।
वहीं राज्य गठन की झण्डेबरदार रही उत्तराखण्ड क्रांतिदल की शर्मनाक दुर्दशा का मूल कारण ही गुटबाजी रही। राज्य गठन के जनांदोलन के समय भी राज्य गठन के लिए राव मुलायम के दमन को सह कर भी आंदोलन कर रही उत्तराखण्ड की जनता को मजबूत नेतृत्व देने के बजाय उक्रांद नेता गुटबाजी में लिप्त हो कर अपने गुटों के बर्चस्व की जंग लड रहे थे। उक्रांद  भी जनता दल की तरह कई गुटों में विभाजित रही। उक्रांद के सर्वमान्य नेता इंद्रमणि बडोनी व काशी सिंह ऐरी के नेतृत्व के खिलाफ सदैव दिवाकर भट्ट ने झण्डा बुलंद ंिकया। जिसके कारण उक्रांद काशी सिंह ऐरी व दिवाकर भट्ट में बिखर कर बंट गया। इसमें काशी सिंह ऐरी में बडोनी, विपिन त्रिपाठी, पंवार जैसे नेता रहे वहीं दिवाकर के नेतृत्व वाले उक्रांद में पूरण सिंह डंगवाल आदि नेता रहे। इसके बाद ऐरी गुट ने त्रिवेन्द्र पंवार को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो त्रिवेन्द्र ने अपने ढंग से प्रदेश की सत्ता के खिलाफ आवाज उठा कर उक्रांद को संघर्ष की राह दिखाने का काम किया तो सत्ता का दामन थामने की राजनीति में अभ्यस्त रहे प्रदेश उक्रांद के नेताओं ने त्रिवेन्द्र पंवार को ही दल से बाहर कर दिया। इस प्रकार उक्रांद कई गुटों में विभाजित हुआ। उक्रांद के नेतृत्व की खुमार तब टूटी जब 2017 में पूरे प्रदेश से उक्रांद का नामलेवा कोई विधायक नहीं जीता। उसके बाद उक्रांद के काशीसिंह ऐरी, पंवार व दिवाकर ने मिल कर एकजूट होने की पहल की। उसके बाद उक्रांद की कमान दिवाकर भट्ट को सौंप दी। अपने तेजतरार तेवरों से राज्य आंदोलन में फिल्ड मार्शल के नाम से चर्चित रहे दिवाकर अब नयी  पीढ़ी को कहां तक उक्रांद से जोड़ पाते है यह तो समय ही बतायेगा। पर साफ है कि अगर उक्रांद के नेता क्षेत्रवाद, जातिवाद व शराब से उपर उठ कर जनांकांक्षाओं व हक हकूकों के लिए संघर्ष तेज करे  तो वह दिन दूर नहीं जब जनता उनके हाथों में प्रदेश की कमान देने सोंप सकती है।
गुटबाजी का कांग्रेसी इतिहास उत्तराखण्ड में राज्य गठन के समय से पहले से रहा। यह जगजाहिर है कि भले ही तिवारी देश के वरिष्ठत्तम नेता रहे पर उत्तराखण्ड कांग्रेस संगठन में हरीश रावत की पकड़ मजबूत होने के कारण वह दिल्ली के आकाओं ंके दम पर ही यहां पर सत्तासीन रहे।वहीं तिवारी द्वारा अपने कृत्यों से खुद को हाशिये में धकेलने के बाद यह गुटबाजी हरीश रावत, सतपाल महाराज, इंदिरा हृदेश, विजय बहुगुणा व हरक सिंह रावत के गुटों में बुरी तरह से विभक्त हो गयी। हरक सिंह रावत ही एकमात्र नेता रहे जो प्रदेश के अधिकांश क्षत्रपों से सीधे टक्कर भी लेते रहे व अपनी सुविधा के अनुसार पाला बदल कर अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाते रहे।
हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद जिस प्रकार से हरीश रावत ने प्रदेश के सभी कांग्रेसी छत्रपों को एक एक करके हाशिये में धकेल दिया उससे अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए प्रदेश में हरीश रावत को मजबूत टक्कर दे सकने वाले सतपाल महाराज ने अपनी उपेक्षा से आहत होकर कांग्रेस को छोड़ कर भाजपा का दामन थाम लिया।
परन्तु 2017 के विधानसभा चुनाव में हर हाल में उत्तराखण्ड में विजय पाने की रणनीति को अमलीजामा पहनाते हुए जिस प्रकार से भाजपा प्रमुख अमित शाह ने प्रदेश में आसीन हरीश रावत की कांग्रेसी सरकार में 9 कांग्रेसी विद्रोही मंत्री व विधायकों के दम पर सरकार गिराने का भले ही असफल प्रयास किया, पर उससे प्रदेश में कांग्रेस की चूलें ही हिल गयी।
भले ही इस असफल विद्रोह के एक साल बाद चुनाव हुए पर कांग्रेस मोदी व शाह के चक्रव्यूह में फंस कर बुरी तरह से परास्त हुई। उसके अधिकांश बडे दिग्गज हरक सिंह रावत, विजय बहुगुणा, यशपाल आर्य आदि एक दर्जन नेताओं ने भाजपा की तरफ से चुनावी ताल ठोकी। भले ही इनमें अधिकांश नेताओं को जनता फूटी आंख से देखना भी पसंद नहीं करती परन्तु ये नेता अपने तिकडम से चुनाव जीतने में महारथ हासिल किये हुए थे। यही जान कर अमित शाह ने इनको जीतने वाला समझ कर इनको भाजपा का टिकट दे कर अपने दल के समर्पित कार्यकत्र्ताओं को ही हाशिये में धकेल दिया और कार्यकत्र्ताओं को नाखुश कर दिया। इसका परिणाम जग जाहिर है भाजपा ने कांग्रेस को चारों खाने ऐसे चित्त किया की मठाधीशी में डूबे कांग्रेसी मठाधीशों का सत्ता का खुमार पूरी तरह से उतर गया।
कांग्रेस के दिग्गज क्षत्रपों के जाने के बाद ऐसा लग रहा था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने तमाम विरोधियों को धूल चटा दी। अब प्रदेश में कांग्रेस का अर्थ हरीश रावत हो गया। परन्तु लोगों की इस धारणा को तोडा हरीश रावत के सबसे विश्वसनीय सिपाहेसलाहकार रहे किशोर उपाध्याय ने। किशोर उपाध्याय जिन्हे हरीश रावत की सलाह पर कांग्रेस आलाकमान ने प्रदेश का अध्यक्ष की कमान सौंपी थी। किशोर उपाध्याय का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना टिहरी संसदीय क्षेत्र में विजय बहुगुणा ने अपने बर्चस्व पर ग्रहण लगाने वाला कदम माना।  कांग्रेस नेतृत्व के इसी कदम को अपने राजनैतिक अस्तित्व पर ग्रहण मानते हुए पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को इतने आक्रोशित हुए कि उन्होने हरक सिंह रावत की पहल पर कांग्रेस से विद्रोह का झण्डा बुलंद कर दिया।
किशोर उपाध्याय जिन्होने अपनी अंध महत्वकांक्षाओं के लिए पहले भी कई बार हरीश रावत को मात देने की कोशिश की परन्तु इसके बाबजूद हरीश रावत ने किशोर उपाध्याय को अपना समझ कर प्रदेश की कमान सौपने की सलाह कांग्रेस नेतृत्व को दिया था। राज्य सभा की सांसदी कांग्रेसी नेता प्रदीप टम्टा को बनाये जाने से इतने नाखुश हुए कि किशोर उपाध्याय ने विधानसभाई चुनाव के मोड़ पर खडी कांग्रेस सरकार के खिलाफ ऐसी बयानबाजी की कि कई बार कांग्रेसियों को आशंका हुई कि कहीं किशोर उपाध्याय भी बहुगुणा और साथियों की तरह भाजपा का दामन न थाम ले। परन्तु गुटबाजी से त्रस्त कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं का मनोबल ऐसा गिरा कि वह चुनावी समर में भाजपा का कोई मुकाबला ही नहीं कर पाया।
उसके बाद चुनाव में मिली हार के बाद पुन्न कांग्रेस की गुटबाजी उभर कर सामने आयी। कांग्रेसी मठाधीशों की शह पर तिवारी सरकार की सबसे ताकतवर मंत्री रही इंदिरा हृदेश ने नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद जिस प्रकार अपने तेवर दिखाये उससे गुटबाजी फिर सामने आ गयी। कांग्रेस के नये प्रदेश अध्यक्ष प्रीत्तम सिंह अपने सौम्य स्वभाव से भले ही पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को कोई चुनौती देते नजर नहीं आये। परन्तु किशोर उपाध्याय के समर्थक अपनी उपेक्षा का राग छेड कर अपने गुट कर झंडा बुलंद करते नजर आये। वर्तमान में भले ही सारी प्रदेश की कांग्रेस प्रीतम -हरीश रावत के आस पास खड़ी नजर आती है पर किशोर उपाध्याय समर्थकों व इंदिरा हृदेश के स्वर रह रह कर कांग्रेसी गुटबाजी को जगजाहिर कर देते है।
अब कांग्र्रेस नेतृत्व राहुल गांधी को समझना चाहिए कि कांग्रेस में गुटबाजी केवल बयान देने से नहीं दूर होगी। कांग्रेस में गुटबाजी को दूर करने के लिए या तो कांग्रेस क्षत्रप उक्रांद की तरह एकजूट हों या इन गुटबाजों को भाजपा में शाह की तरह हाशिये में डालने का ठोस कदम उठाने की कुब्बत हो।
वेसे गुटबाजी को हवा चाहे भाजपा में हो या कांग्रेस में हो। इन दलोें के मठाधीश दिल्ली से ही देते है। गुटबाजी को हवा दलों के मठाधीश इसलिए भी देते हैं कि प्रांतीय नेतृत्व इतना मजबूत न हो। गुटबाजी में विभक्त करके दलों के मठाधीश अपने प्यादों को राज्यों की सत्ता में आसीन कर प्रदेश की सत्ता का बंदरबांट अपने निहित स्वार्थो के लिए करते है। प्रदेश के मजबूत नेताओं के बजाय केन्द्रीय नेतृत्व के समक्ष दण्डवत करने वालों को सत्तासीन किया जाता रहा। चाहे सत्ता में भाजपा हो या कांग्रेस यही हथकण्डा केन्द्रीय नेतृत्व अपनाता रहा। जब प्रदेश के मजबूत नेता व प्रदेश के हितों के लिए ईमानदारी से काम करने वाले नेता के अलावा ईमानदार नेता देखते हैं कि जबरन दिल्ली से प्यादों को थोपा जा रहा है तो प्रदेश के नेताओं में असंतोष उभरना तय होता है। यही असंतोष गुटबाजी को जन्म देता है। जिसे केन्द्रीय मठाधीश बने नेता अपने निहित स्वार्थ के लिए समय समय पर हवा देते रहते। दूसरे शब्दों में कहे कि केन्द्रीय नेतृत्व को मजबूत बनाने की चाबी है प्रदेशों में गुटबाजी उभारना। गुटबाजी दलों में केन्द्रीय नेता ही उभारते है।

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