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नई संसद के उद्घाटन पर विवाद से  राजनैतिक दल बेनकाब! सर्वोच्च न्यायालय ने भी हस्तक्षेप करने की गुहार लगाने वाली याचिका की खारिज

नई संसद पर विवाद तो विपक्ष का मात्र बहाना है, असल में  लोकसभा चुनाव-2024  में मोदी को हराकर देश की सत्ता हथियाना  है

 

देवसिंह रावत-

 

28 मई2023 को जहां एक तरफ मोदी सरकार बहुत ही हर्षोल्लाश के साथ देश की नई संसद का विधिवत उदघाटन करने के लिये कमर कस चूकी है। इसको ऐतिहासिक व भव्य बनाने के लिये मोदी सरकार तमाम कदम उठा रही है। परन्तु विपक्ष इसका भारी विवाद कर रहा है कि नई संसद भवन का उदघाटन प्रधानमंत्री के बजाय देश की राष्ट्रपति से कराया जाना चाहिये। सरकारी सूचना के अनुसार इस भवन का उदघाटन  देेश के जनादेश के नायक प्रधानमंत्री मोदी के करेंगे। विपक्ष को परेशानी यही है कि वे मोदी के बजाय राष्ट्रपति के हाथों से कराना चाहते है। विपक्ष को परेशानी है कि 2024 में लोकसभा चुनाव में मोदी इसका श्रेय ले जायेगा। इस भवन के निर्माण को अपनी सरकार की बड़ी उपलब्ब्धीी बता कर जनादेश अर्जित करेंगे। यह विवाद इतना बढा कि कांग्रेस सहित 20 विपक्षी दलों ने इस भवन के उदघाटन समारोह का बहिष्कार करने का ऐलान कर दिया। इससे यह विवाद बढ गया। इस विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के दर पर  ले जाने का असफल प्रयास किया गया।  सर्वोच्च न्यायालय ने भी 26 मई 2023 को संसद के नये भवन के उदघाटन प्रधानमंत्री के बजाय राष्ट्रपति के हाथों से कराने की याचिका को रद्द करते हुये याचिका दाखिल करने वाले को कड़ी फटकार लगाते हुये याचिकाकर्ता से पूछा कि इसमें जनहित क्या है? सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका कर्ता को फटकार लगाते हुये कहा कि ऐसी याचिका दायर करेंगे तो जुर्माना भी लगेगा।
यहां पर सवाल यह है कि नई संसद के उद्घाटन प्रकरण विवाद से देश की पूरी राजनीति एक प्रकार से बेनकाब ही हो गयी। इसमें सरकार सहित विपक्षी दल। किसी को भी देश की जनता की जरूरतों का भान नहीं। संसद भवन नई बने इससे किसी को इतराज नहीं। आजाद भारत में गुलामी के प्रतीकों से देश को मुक्ति मिलनी चाहिये। परन्तु यह केवल भवन मात्र पर विवाद क्यों? प्रधानमंत्री लोकशाही व जनादेश का नायक होता है भारतीय लोकशाही प्रणाली मे। उनके हाथों से उदघाटन का विरोध मात्र अंध दलीय विरोध है। इसे बुद्धिमतापूर्ण नहीं कहा जा सकता।
देश के विपक्ष व सत्तापक्ष को अगर गुलामी के प्रतीक अंग्रेजों द्वारा बनाई संसद आदि से भारत को मुक्ति दिलाने के नाम पर होती तो यह बेहतर होता। सरकार को देश की जनता को यही बताना था। परन्तु इस गुलामी के प्रतीक का नाम भी भारतीय होना चाहिये था। सेंट्रर बिस्टा नहीं भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान या भारतीय जनप्रतिष्ठान। देश को इस कलंक से मुक्ति का कार्य न तो सत्तापक्ष कर पाया व न विपक्ष। दोनों ही देश को पंचमी गुलामी ढोने की प्रतियोगिता में जुटे हैं। इस अंग्रेजों की दासता का बोध कराने वाले अंग्रेजों द्वारा निर्मित संसद के साथ देश की पूरी व्यवस्था को अंग्रेजों की तरह गुलाम बनाये हुये अंग्रेजी भाषा के स्थान पर भारतीय भाषाओं में शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन देश को प्रदान करने की सबसे अधिक जरूरत है। इसको करने में देश की सभी सरकारें पूरी तरह असफल रही। कुछ सरकारें ऐसा करने का वादा तो करती है परन्तु सत्तासीन होने के बाद सरकारें इस दिशा में ठोस कार्य करने में नाकामयाब रहती है।
इस नई संसद का उदघाटन की तरफ देश के आम जनता का ध्यान नहीं जाता अगर देश का मतिमंद व दिशाहीन विपक्ष इस पर घडियाली आंसू बहाते हुये इसका पुरजोर विरोध न करता। देश में हजारों उदघाटन हर साल सरकार करती है। आम जनता का शायद ही उस तरफ ध्यान आकृष्ठ नहीं होता। जनता मंहगाई, बेरोजगार, भ्रष्टाचार व कुशासन से त्रस्त हो कर किसी तरह अपना जीवन बसर करने में लगी रहती। देश को अंग्रेजों से मुक्त होने के 75 साल बाद भी  देश की सरकारें देश की आम जनता को शिक्षा, रोजगार, न्याय व सुशासन तक नहीं दे पाई। देश को 75 सालों से तमाम पक्ष विपक्ष की सरकारें देश को अपना नाम व अपनी भाषा के साथ अपनी गौरवशाली व्यवस्था -इतिहास तक नहीं दे पाया। सबसे शर्मनाक बात यह है कि  इसलिये सभी सरकारों द्वारा छले जाने के बाद जनता को इन सभी दलों के वादे व आंदोलन भी मात्र जनता की आंखों में धूल झोंकने के साथ देश की जनता का जनादेश हरण कर देश के विकास के संसाधनों की बंदरबांट करना। देश की सरकारें देश के विकास व आम जनता के दुख दर्द के प्रति कितनी ईमानदार हैं यह इनके जनहित के कार्यों पर संसाधनों का रोना रोने वाली सरकारें अपनी वेतन, भत्ते, सुविधाओं पर करोड़ों रूपये पानी की तरह लुटवाते देख कर स्तब्ध है। 75 साल की तमाम सरकारें देश में भारतीय संस्कृति के मूल्यों व आस्था की रक्षा करने में भी असफल रही। गो हत्या व गो वंश मांस निर्यात पर पूर्ण प्रतिबंध तक लगाने की हिम्मत किसी सरकार को नहीं आयी। भारतीय भाषा आंदोलन 2013 से आज तक निरंतर देश के हुक्मरानों से देश पर लगे गुलामी के कलंक को मुक्त करने की मांग करते हुये वर्षों तक संसद की चैखट जंतर मंतर, प्रधानमंत्री कार्यालय तक सैकडों दिन पदयात्रा करने व शहीद पार्क व इंटरनेटी माध्यम से प्रतिदिन आज तक प्रधानमंत्री से गुहार लगाने के शांतिपूर्ण आंदोलन को नकार कर भारतीय हुक्मरानों,  राजनेतिक दलों व मीडिया आदि सभी बेनकाब हो गये हैं।जहां तक देश की सामान्य दलीय राजनीति का सवाल है। उसमें सभी दल मोदी के पराक्रम का मुकाबला करने में चुनावी जंग में ंअसफल रहे। मोदी नेतृत्व की कमजोरी के कारण कर्नाटक के पराजय को भले ही कांग्रेस सहित विपक्ष अपनी विजय रूपि उपलब्धी समझ कर 2024 की चुनावी समर में मोदी को परास्त करने के सपने देखने लगा। पर हकीकत यह है कि अतिमहत्वकांक्षी, पदलोलुपु व दिशाहीन विपक्षी दलों की एकजूटता के आगे भी मोदी इन तमाम दलों के समक्ष जनता की नजरों में 21 ही नजर आ रहे है। मंहगाई, बेराजगारी आदि असफलताओं के बाबजूद देश की अधिकांश जनता 2024 के लोकसभा चुनाव के लिये मोदी का नेतृत्व देश के हितकर लग रहा है। मोदी सरकार को चाहिये कि वह जनता से 2014 के लोकसभा चुनाव में किये गये अपने साकार न कर पाये हुये वादों को पूरा  करने का अथक  प्रयास करें।
26मई 2014 को पहली बार नरेंद्र मोदी ने भाजपा गठबंधन की सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। आज 26 मई को उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल के 9 साल पूरे हो गये हैं। उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले के वे वादे जिनका वादा करके मोदी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन ने कांग्रेस पर कुशासन का आरोप लगाते हुये जनादेश अर्जित कर देश की सत्ता पर आसीन हुये थे। प्रधानमंत्री के रूप में उनका शासन आज भी जारी है। हम उनके इन 9 सालों की उपलब्धियों पर भी एक नजर डालेंगे।
सबसे बडा आरोप सन 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी नेतृत्व वाली भाजपा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन की कांग्रेस नेतृत्व वाली सप्रंग सरकार पर लगाते हुये जनादेश मांगा था कि जनता मनमोहनी सरकार के कुशासन में मंहगाई से त्रस्त है। उस समय यह नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था कि ‘बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’, ‘मोदी जी आयेंगे, सबके अच्छे दिन लायेंगे’। इस वादे पर विश्वास करके  देश की जनता ने पहली बार भाजपा गठबबंधन को 282 सीटें प्रदान कर पूर्ण बहुमत का जनादेश दिया। देश के करीब 17 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने मोदी पर विश्वास कर देश की सत्ता से कांग्रेस शासन को कुशासन समझ कर उखाड़ फैंका था।
मोदी सरकार के इन 9 सालों के महत्वपूर्ण कार्यो में रामजन्मभूमि मंदिर पर 5 शताब्दियों से लगे कलंक रूपि विस्फोटक विवाद को  शांतिपूर्ण ढंग से समाधान करना, कश्मीर में अलगाववाद के पोषक  धारा370 व 35 ए की धार कूंद कर वहां भारतीय परचम लहराना, महिलाओं के सम्मान की रक्षा करते हुये उनको तीन तलाक के दंश से मुक्त करने का सराहनीय प्रयास जैसे ऐतिहासिक कार्य रहे। वहीं दूसरी तरफ नोटबंदी, जीएसटी व अग्निवीर जैसे कार्य विवादस्थ रहे। इसके साथ भारत को आतंक से बर्बाद करने को तुले पाकिस्तान व चीन को शत्रु राष्ट्र व आतंकी देश घोषित न करके देश की जनता को निराश ही किया।
इस जनादेश के पांच साल के कार्यकाल में मोदी सरकार भले ही जनता को मंहगाई के दंश से मुक्त कराने में असफल रही। इसके अलावा रोजगार के मोर्चे पर भी मोदी सरकार अपने वचनों की रक्षा तक नहीं कर पायी। सन 2014 में मोदी सरकार के सत्तासीन होने से पहले जहां देश के 43 करोड़ जनता के पास रोजगार था, वहीं 2023 में केवल 41 करोड़ लोगों के पास रोजगार रहा। मोदी सरकार के सत्तासीन होने से पहले देश में बेरोजगारी की दर 3.4 प्रतिशत थी वह इस समय 8.1 प्रतिशत हो गयी।  परन्तु इसके बाबजूद देश की जनता ने 2019 के लोकसभा चुनाव  में विपक्ष के तमाम जुगलबंदी व प्रचण्ड विरोध के बाबजूद 23 करोड़ जनता ने पहले से अधिक यानि 303 सीटेों पर भाजपा को विजयी प्रदान कर मोदी के शासन  पर अपनी मुहर लगा दी।
मोदी सरकार के 9 साल के कार्यकाल पर आर्थिक मूल्यांकन किया जाय तो हम पाते हैं कि 2014 में मोदी के पहली बार प्रधानमंत्री बनते समय भारत का सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी 112 लाख करोड़ रूपये के करीब थी। आज 9 साल बाद भारत का सकल घरेलु उत्पाद करीब 272 लाख करोड यानि दुगुने से अधिक बढ़ गया।  2014 में भारत की प्रतिव्यक्ति आय करीब 79118 रूपये थी, जो इन 9 सालों में बढ़ककर 170620 रू हो गयी। आज भारत दुनिया की पांचवी सबसे बडी अर्थव्यवस्था है। इस दौरान इस शताब्दी की सबसे विश्व त्रासदी कोरोना महामारी का संकट के भंवर से जिस बखूबी से प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के 140 करोड़ जनता के साथ विश्व के अधिकांश देशों को उबारने का कार्य किया, उससे पूरे विश्व में भारत का डंका ही बजा। अभी आस्ट्रेलिया दोरे में प्रधानमंत्री मोदी ने आस्टेªलिया के प्रधानमंत्री की उपस्थिति में विशाल भारतीय जनसमुदाय को संबोधित करते हुये कहा कि हम 140 करोड़ भारतीयों का एक ही सपना है कि भारत को विकसित देश बनाने का। इसी दिशा में मोदी के नेतृत्व में भारत ही नहीं पूरे विश्व में भारत का डंका बज रहा है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण इसी पखवाडे प्रधानमंत्री मोदी की जी-7 के शिखर सम्मेलन में जापान में देख कर पूरे विश्व को देखने को मिला। कैसे इस शिखर सम्मेलन में विश्व के स्वयंभू थानेदार व एकक्षत्र  महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति जो वाइडेन ने प्रधानमंत्री मोदी का गुणगान किया। मोदी जहां भी जाते हैं वहां भारत का परचम पूरे विश्व में लहरा देते हैं। भारतीय भाषा में भारतीय संस्कृति, स्वाभिान व भारतीय प्रतिभाओं का जलवा ऐसा लहराते हैं कि पूरा विश्व भारत का कायल हो जाता है। रूस यूक्रेन युद्ध में भी जिस प्रकार से मोदी सरकार ने भारतीय हितों, स्वाभिमान व न्यायपूर्ण नीतियों से भारत का स्वतंत्र वजूद स्थापित किया वह वर्तमान समय में गुटबाजी में बंटे विश्व में एकलोता व अनुपम उदाहरण है।
भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार मोदी शासनकाल में ढाई गुना बढोतरी , मोदी के कार्यकाल की सराहनीय उपलब्धी है। वहीं स्वदेशी व आत्मनिर्भर भारत का नारा, संघ पोषित भाजपा का दशकों से रहा। मोदी के शासनकाल में मेक इन इंडिया का विशेष अभियान चलाया। मोदी के शासनकाल में भारत का निर्यात भी दुगुना से अधिक बढ गया। सन 2014 को भारत  का निर्यात करीब 19.05 लाख करोड़ रू था, वहीं 2022-23 में 36लाख करोड़ रूपये हो गया। इसके साथ मोदी सरकार में आयात भी इसी रफ्तार से बढ़ा। 2014 में भारत का सकल आयात 27.15 लाख करोड़ था, वह 2023 में बढ़ कर 57.33 लाख करोड़ हो गया। पर भारत में विदेशी कर्ज भी इसी रफ्तार से बढ़ा  सन् 2014 में भारत का सकल आयात 409.4 अरब डालर था जो 2023 में बढ़ कर 613.01 अरब डालर हो गया।
देश की आम जनता को शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन प्रदान करने में सभी दलों की अब तक की तमाम सरकारें असफल रही। आशा है देश के राजनैतिक दल इस  दिशा में अपने प्रथम दायित्व का निर्वहन करेंगे। परन्तु 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुये हमें वर्तमान अंध तुष्टिकरण व सत्तालोलुपुता में डूबे देश के राजनीति को देखते हुये यह साफ दिख रहा है कि देश की जनता को इस  अराजक राजनीति मेें तमाम राजनैतिक दलों के गठबंधन से कहीं बेहतर मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ही दिखाई दे रही है। जरूरत है मोदी नेतृत्व वाली भाजपा को भी जनता द्वारा नक्कारे पदलोलुपु नेताओं को थोपने के बजाय जनहित में लगे प्रांतीय नेताओं को महत्वपूर्ण दायित्व प्रदान करे और 2014 के चुनावी घोषणाओं को साकार करे। देशहित व जनहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की राजनीति देश में होनी चाहिये।

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