उत्तराखंड

उतराखण्ड की जनता बाघ व बंदरों से त्रस्त, पर उतराखण्ड सरकार नीरों बन तमाशों में मस्त

 6 नवम्बर को ही उतराखण्ड में मनखी बाघ ने महिला सहित दो लोगों को मौत के घाट  उतारा
त्रिवेन्द्र सरकार, राज्य स्थापना दिवस जैसे समारोहों में भी गैरसैंण व आंदोलनकारियों की कर रही उपेक्षा
हिंसक जानवरों के हमले में मृतक के परिजनों को दे 10 लाख रूपये का मुआवजा और आश्रित को सरकारी नोकरी
प्रदेश की पर्यावरण रक्षा व संवर्द्धन के लिए हिमालयी जनपदों के ग्रामीणों को निशुल्क बिजली, पानी व ईंधन प्रदान करे सरकार
राजधानी गैरसैंण बनाने, मुजफ्फरनगर काण्ड-94 के गुनाहगारों को सजा दिलाने के साथ राज्य गठन की जनांकांक्षायें साकार करे सरकार

 

देवसिंह रावत

जहां उतराखण्ड की  त्रिवेन्द्र सरकार प्रदेश की पूर्व सरकारों की तरह ही प्रदेश जनांकांक्षाओं व हितों को नजरांदाज करते हुए मात्र राज्य स्थापना दिवस को नीरों की तरह मना रही है।ं वहीं दूसरी तरफ प्रदेश की 19 साल की तमाम सरकारों द्वारा प्रदेश की जनांकांक्षाओं व हक हकूकों को नजरांदाज के कारण मनखी बाघ,रीछ,सुअर व बंदर सहित हिंसक जंगली जानवरों ने लोगों का जीना दुश्वार कर रखा है। 6 नवम्बर को ही उतराखण्ड के ऊधम सिंह नगर जिले के खटीमा  की एक महिला व रूद्रप्रयाग विकासखण्ड जखोली सतनी गांव एक व्यक्ति को आदमखोर बाघ  ने मौत के घाट उतार दिया।
रूद्रप्रयाग जनपद के सतनी गांव केे 55 वर्षीय मदन सिंह बिष्ट को 6 नवम्बर को उस समय निवाला बना दिया जब वह अपने जंगल में घास लेने गया था। जब सांयकाल तक मदन सिंह बिष्ट घर वापस नहीं आये तो ग्रामीणों ने उसकी खोज खबर लेने जंगल गयी, जहां लोगों को मदन सिंह बिष्ट का आधा खाया शरीर मिला। इस घटना से सतनी गांव सहित पूरे जनपद में आक्रोश फैल गया। आक्रोशित व सहमें लोगों को भरोसा दिलाते हुए  जिला वन अधिकारी ने कहा कि विभाग इस बाघ को पकड़ने के लिए यथाशीघ्र पिंजरा लगाया जायेगा।
वहीं 6 नवम्बर को ही ऊधम सिंह नगर जनपद के खटीमा क्षेत्र के खेतलसंडा मुस्ताजर गांव की 35 वर्षीया गीता राणा अपने पति के साथ जंगल में लिंकुडा तोड़ रही थी की अचानक उस पर मनखी बाघ ने प्राणाघात हमला किया। आदमखोर के जबडे से बहुत ही जिद्दोजहद के बाद गीता को उसके सेनिक पति ने बचा कर बाघ को भगाया। घायल गीता को लेकर उसके पति अस्पताल पंहुचा जहां चिकित्सकों ने उसे मृत घोषित किया। मनखी बाघ का शिकार बनी गीता के निधन से उसके पति व दो बेटियों का रो रो कर हाल बेहाल है।
इन घटनाओं पर न तो प्रदेश की राज्य स्थापना दिवस को धार धार में तमाशाई अंदाज में मना रहे प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र व उनकी सरकार  पर कोई असर पड़ा। नहीं विपक्षी नेताओं  और प्रदेश की नौकरशाहों की कान में भी जूं नहीं रेंगी। नहीं अभी प्रदेश में सम्पन्न हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में विजयी हो कर जश्न मना रहे  ग्राम प्रधान, विकासखण्ड प्रमुख व जिला पंचायत अध्यक्षों के कानों में ही जूं रेंगी। मानों इनकी नजरों में प्रदेश के आम आदमी की जान की कोई कीमत ही नहीं है।
ऐसा नहीं है कि 6 नवम्बर को बाघ द्वारा किसी इंसान को निवाला बनाने की पहली घटना है। प्रदेश में आये दिन ऐसी घटनाओं में प्रदेश केे किसी न किसी व्यक्ति को अपनी जान से इन जंगली जानवरों के निशाने पर आने से गंवानी पड़ रही है। पर क्या मजाल है कि जिस प्रदेश में 69.8 प्रतिशत भू भाग वन क्षेत्र में हो और प्रदेश में बाघ सहित अन्य जंगली जानवरों के लिए कई पार्क व अभ्यारण विद्यमान हो। ऐसे भौगोलिक परिस्थिति और प्रदेश में आये दिन बाघ, रीछ, हाथी व सुअर आदि हिंसक जंगली जानवरों  के हमले से पीड़ित प्रदेश में सरकार की बड़ी जिम्मेदारी होती है प्रदेश के विकास को पर्यावरण के नाम से अवरूद्ध न होने देने के साथ हिंसक जंगली जानवरों से लोगों की जानमाल से लेकर खेत खलिहान की रक्षा करने की। परन्तु वर्तमान सरकार सहित प्रदेश की सभी 19 सालों की सरकार ने इस दिशा में एक कदम भी ईमानदारी से नहीं उठाया। होना तो चाहिए था कि प्रदेश सरकार को गंभीरता से इस समस्या का निदान करते। जिससे प्रदेश में जंगली जानवरों के साथ इंसानों का भी जीवन सुरक्षित रहे। सबसे हास्यास्पद है कि प्रदेश सरकार ने बडे बांध बनाने, अभ्यारण बनाने व बाघ सहित जंगली पशुओं को मारने पर  अपनी सुविधा के अनुसार कड़े नियम बना रखे है। परन्तु प्रदेश के सवा लाख लोगों की सुरक्षा व विकास के लिए ठोस नियम बनाने की न तो प्रदेश के हुक्मरानों के पास न तो समय है व नहीं कोई दिल्ली इच्छा।
सरकार को चाहिए था कि राज्य गठन के तत्काल बाद प्रदेश की विशेष भौगोलिक स्थिति को देखते हुए विशेष कानून बनाने चाहिए था। सरकार को नागरिकों व उनके पालतु जानवरों के साथ खेत खलिहानों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था करनी चाहिए थी। सरकार को अपनी इस जिम्मेदारी से दूर नहीं भागना चाहिए था। जिस प्रकार से सरकार ने नियम बना रखे है कोई भी व्यक्ति जंगली पशुओं की हत्या करने या पेड़ काटने पर कडे दण्ड की व्यवस्था की गयी है। परन्तु सरकार द्वारा संरक्षित व पोषित जंगली जानवरों द्वारा नागरिक बस्तियों में किये गये हमले से इंसानों को निजात दिलाने ेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेकी कोई पहल तक नहीं की। सरकार को चाहिए था कि नागरिक बस्तियों व ग्रामीण जंगलों में सरकार द्वारा पोषित व संरक्षित बाघ आदि हिंसक जंगली जानवर किसी पर हमला न कर पाये। अगर इस पर हमला कोई जानवर हमला करता है तो  मारे जाने वाले व्यक्ति को सरकार कम से कम 10 लाख रूपये का मुआवजा और आश्रित को सरकारी नोकरी का प्रावधान हो। ग्रामीणों पर हिंसक जंगली जानवरों के हमले की जिम्मेदारी संबंधित वन विभाग के उच्चाधिकारी व स्थानीय कर्मचारियों की होगी। सरकार अपने अभ्यारणों व पार्को की ऐसी सुरक्षा व्यवस्था करे जिससे ये जानवर किसी भी सूरत में ग्रामीण बस्तियों में न आये।  इस जिम्मेदारी सरकार को निर्वाह करने में सरकार फिसड़ी साबित हुई। सरकार इस दिशा में कोई कदम तक नहीं उठा पा रही है।
वनों पर स्थानीय लोगों का अधिकार जो कम किये गये उसे बढाया जाना चाहिए। ग्रामीणों को चारे,पशु चरान व  लकड़ी आदि का अधिकार दिया जाना चाहिए। इसके साथ उतराखण्ड को बांधों व बाघों से जमीदोज करने वाली सरकार को चाहिए कि स्थानीय ग्रामीणों के विकास के लिए बनने वाले मोटर मार्ग, नहर, विद्यालय व चिकित्सालय इत्यादि के निर्माण के लिए पर्यावरण की दोहरेपन के तुगलकी फरमानों पर अंकुश लगना चाहिए। परन्तु देखा यह जाता है कि ग्रामीणों के विकास के मार्ग पर वर्षों तक पर्यावरण का ग्रहण लगा रहता है। सरकार को चाहिए  कि प्रदेश में वनों को आग से बचाने व वृक्षा रोपण के तमाम कार्य स्थानीय ग्रामीणों की भागेदारी से कराना चाहिए। इन कार्यों में किसी भी प्रकार के गैर सरकारी संगठनों व ठेकेदारों को दूर रखना चाहिए। इससे गांवों में स्थानीय लोगों को जहां एक तरफ रोजगार मिलेगा वहीं दूसरी तरफ आग लगने की घटनाओं पर त्वरित अंकुश लगेगा व सघन वृक्षा रोपण का काम ईमानदारी से किया जायेगा। पर्यावरण की सुरक्षा व संवर्द्धन के लिए सरकार को चाहिए कि हिमालयी जनपदों के ग्रामीणों को निशुल्क बिजली, पानी व ईंधन दिया जाना चाहिए। क्योंकि उतराखण्ड के लोगों ने पर्यावरण बचाने के लिए वनों का सदियों से पोषण किया। इसका उनको ईनाम मिलना चाहिए था परन्तु सरकार पर्यावरण कानून लगा कर उनके विकास को अवरूद्ध करके उनको उल्टा दण्डित करने का कृत्य करती है। इस कारण उनको जंगल से मोह भंग हो गया है। इसके कारण पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा है।
प्रदेश सरकार प्रदेश के हितों के प्रति कितनी उदासीन है इसका जीवंत उदाहरण है प्रदेश गठन के आधे  दशक में जिस प्रकार उतराखण्ड में मध्य प्रदेश व दिल्ली के शहरी बंदर आदि हजारों हजार की संख्या में छोड़े गये, उस समय तत्कालीन उतराखण्ड की सरकार ने इसका विरोध तक नहीं किया। ये इंसानी बस्तियों में रहने वाले बंदर आदि ने उतराखण्ड की खेत खलिहान ही नहीं घरों में घुस कर तबाही मचाने का काम कर रहे है। नइके द्वारा मचाई जा रही तबाही से लोगों ने खेती का काम भी छोड़ दिया है। पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले स्थानीय बंदर यहां के कुत्तों व इंसानों से डरते थे, परन्तु ये मध्यप्रदेश व दिल्ली के बंदर आदि जंगली पशु न मनुष्यों से डरते है व नहीं कुत्तों से। ये हमलावर हो कर लोगों के खेत खलिहान व घरों में जबरन घुस कर तबाही मचा रहे है।
राज्य गठन के बाद प्रदेश सरकार को गंभीरता से प्रदेश की उन जनांकांक्षाओं को साकार करना चाहिए था, जिनके लिए प्रदेश की जनता ने राव मुलायम के जघन्य जुल्मी दमनों को सहते हुए भी प्रदेश गठन का व्यापक जनांदोलन किया। प्रदेश की उप्र से भिन्न भौगोलिक व सामाजिक ताना बाने को देखते हुए प्रदेश की जनता की पुरजोर मांग थी कि प्रदेश की राजधानी गैरसैंण में बनायी जाय। सबसे हैरानी की बात यह है कि जनता के भारी दवाब के कारण देहरादून में ही कुण्डली मार कर राजकाज कर रही उतराखण्ड की सरकार ने गैरसैंण में प्रदेश का एकमात्र विधानसभा भवन, विधायक निवास सहित अन्य महत्वपूर्ण भवनों का निर्माण तो किया। जनता के दवाब में गैरसैंण में बजट सत्र, शीतकालीन सत्र सहित सभी महत्वपूर्ण सत्रों का आयोजन करने के बाबजूद सरकार, प्रदेश की स्थाई राजधानी गैरसैंण घोषित न करके प्रदेश के शहीदों की शहादत व राज्य गठन आंदोलनकारियों के संघर्ष के साथ प्रदेश के हितों पर शर्मनाक कुठाराघात कर रही है। सरकार द्वारा राजधानी गैरसैंण घोषित न करने व देहरादून में कुण्डली मार के बेठे रहने से जहां प्रदेश के पर्वतीय, सीमान्त व दूरस्थ जनपदों से शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा व शासन सब देहरादून सहित चंद मैदानी जनपदों में सिमट कर रह गयी है। इसीलिए कर्मचारी सहित आम समर्थ जनता पर्वतीय जनपदों से मजबूरी में पलायन करने के लिए विवश है। जिससे चीन से लगे उतराखण्ड के पर्वतीय जनपद उजड़ने के साथ देश की सुरक्षा पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है। पंचतारा सुविधाओं के मोह में प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री, उसके मंत्री व नौकरशाह, राजधानी गैरसैंण बनाने की मांग से इतने भयभीत व आशंकित हैं कि उन्होने राज्य स्थापना के अवसर पर एक पखवाडे के टिहरी, देहरादून, अल्मोड़ा व श्रीनगर आदि शहरों में अनैक कार्यक्रमों का आयोजन किया, पर उन्हें राज्य स्थापना दिवस प्रदेश की एकमात्र विधानसभा गैरसैंण में आयोजित करने का साहस तक नहीं जुुटा पाये। वे गैरसैंण के नाम से इतने भयभीत हैं कि सपने में भी उनको गैरसैंण के नाम सुनने मात्र से बुखार आ जाता है। जबकि वे भी इस बात को भली भांति समझते हैं कि बिना गैरसैंण राजधानी बनाये प्रदेश का न तो चहुंमुखी विकास हो सकता है व नहीं प्रदेश से पलायन ही रूक सकता है। इसके बाबजूद वे राजधानी गैरसैंण बनाने के बजाय पलायन आयोग व खेल तमाशा करने में प्रदेश के संसाधनों को बर्बाद कर रहे हैं।  वेहतर होता मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र व उनकी सरकार, विधानसभाध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल से प्रेरणा लेकर राज्य स्थापना दिवस, विधानसभा सचिवालय की तरह गैरसैंण में मनाने का अनुकरणीय कार्य करते। परन्तु सही कार्य करने का सौभाग्य हर किसी के नसीब में नहीं होता।
प्रदेश गठन के जनांदोलन को कुचलने के लिए राव मुलायम की दमनकारी सरकार ने उतराखण्डियों के सम्मान को रौंदने के लिए जो जघन्य कृत्य  मुजफ्फरनगर काण्ड-94 में किया था, उसके गुनाहगारों को जिनको सीबीआई व इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कटघरे में रखा था, उनको सजा दिलाने के लिए विशेष आयोग बनाने का पहला कदम तक नहीं उठाया। नहीं नहीं प्रदेश की तमाम सरकारों ने इस काण्ड के गुनाहगारों को सजा दिलाने के लिए ईमानदारी से न्यायिक कदम नहीं उठाया। यही नहीं प्रदेश की कई सरकारों ने बेशर्मी से इन गुनाहगारों को सजा दिलाने के बजाय कमजोर पैरवी करके बचने की राह दी और इन गुनाहगारों को लाल कालीन बिछा कर इन हैवानों का स्वागत कर उतराखण्डियों के जख्मों को कुरेदने का कृत्य किया।
इसके साथ प्रदेश सरकार ने इस सीमान्त प्रदेश की विषम भौगोलिक व राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यहां पर भू कानून लागू करना चाहिए था।
प्रदेश की सरकारों की प्रदेश के हक हकूकों की घोर उपेक्षा करने, नासमझी व पदलोलुपता के कारण सीमांत, हिमालयी व वनोच्छादित राज्य उतराखण्ड में मैदानी भूभाग में लागू होने वाला जनसंख्या पर आधारित विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन को थोपकर प्रदेश की राजनैतिक शक्ति के साथ हक हकूकों पर घोर कुठाराघात किया गया। इसका दण्ड प्रदेश को भविष्य में भी भोगना पडेगा।
इसके साथ प्रदेश में जिस प्रकार से दलीय बंधुआ मजदूरी व पदलोलुपता में लिप्त नेताओं के कारण प्रदेश में जातिवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार के दंश से साथ प्रदेश के हक हकूक व सम्मान दम तोड़ रहे है।ं प्रदेश सरकारों की इस प्रवृति को देख कर प्रदेश में भू, जल, वन, जल माफियाओं के साथ सत्ता की बंदरबांट करने वाले सत्ता के दलालों का भी जमघट लग गया है, जो प्रदेश की जनांकांक्षाओं के साथ हक हकूकों पर भी ग्रहण लगा रहे है। प्रदेश की जनता का सरकारों की इस उतराखण्ड विरोधी कृत्यों से पूरी तरह से मोह भंग हो गया है। परन्तु कोई मजबूत विकल्प न होने से मजबूरी में भाजपा व कांग्रेस दोनों बारी बारी से सत्ता की बंदरबांट करने में लगे रहते है। ये दोनों दल की सरकारों की प्राथमिकता उतराखण्ड न हो कर अपने दल के दिल्ली के आकाओं के हितों व सनक को पूरा करना होता है। इसके कारण न प्रदेश की राजधानी गैरसैंण घोषित हो पायी, न प्रदेश के मान सम्मान को रौंदने वाले मुजफ्फरनगर काण्ड-94 के गुनाहगारों को सजा दिलाने के लिए ईमानदारी से कदम तक उठा पायी। यही नहीं प्रदेश की तमाम सरकारें प्रदेश की संस्कृति, भाषा व हितों की ही रक्षा कर पायी। यहां पर राज्य आंदोलनकारियों को सम्मान करने के नाम पर राज्य गठन के 19वंें साल में भी न तो चयन किये जा चूके अग्रणी व सक्रिय आंदोलनकारियों को चिन्हीकरण करने का ऐलान कर पाये।
प्रदेश की सरकारें व यहां के नेता इतने खुदगर्ज व दिशाहीन पदलोलुपु है कि वे प्रदेश के हक हकूकों व सम्मान को बचाने के लिए दलगत राजनीति से उपर उठ कर एक स्वर में प्रदेश की राजधानी गैरसैंण बनाने व मुजफ्फरनगर काण्ड-94 के गुनाहगारों को सजा दिलाने के लिए काम करना तो रहा दूर इसके लिए एक आवाज उठाने के लिए तैयार नहीं है। उल्टा जनता को भ्रमित करने के लिए ऐसे राज्य स्थापना दिवस पर जगह जगह तमाशे, शहीदों को श्रद्धांजलि देने का नाटक, मेरा गांव मेरा तीर्थ व इगास इत्यादि मनाने की नौटंकी करते है। इनकी नौटंकी में इनके प्यादे बने तथाकथित समाजसेवी आदि सियार  की तरह स्वर मिला कर जनता को भ्रमित करने का कृत्य कर रहे है। अगर इन नेताओं को जरा सा भी उतराखण्ड से प्रेम होता तो ये तुरंत प्रदेश की राजधानी गैरसैंण घोषित करते, मुजफरनगर काण्ड-94 के गुनाहगारों को सजा दिलाने के लिए , भू, जंगल कानून बना कर प्रदेश का चहुंमुखी विकास के पथ पर अग्रसर करके राज्य गठन की जनांकांक्षाओं को साकार करते। परन्तु अफसोस यह है राज्य स्थापना दिवस जैसे प्रदेश के चिंतन मंथन व संकल्प लेने के पावन अवसर पर राज्य गठन के आंदोलनकारियों व समर्पित जनों का सम्मान करके उनको राज्य गठन की जनांकांक्षाओं को साकार करने के लिए मार्गदर्शन लेने के बजाय तमाशबीनों व वेतनभोगियों का तमाश मेला बनाने से प्रदेश की दशा व दिशा कैसे सुधरेगी? प्रदेश सरकार यह प्रवृति प्रदेश के हक हकूकों को रौंदने के साथ प्रदेश को पतन के गर्त में धकेलने वाला ही कृत्य साबित हो रहा है। जनता, सामाजिक संगठन, बुद्धिजीवी, पत्रकार व रंग कर्मी या तो इनके खेल तमाशों के मोह में फंस गये है या इनके प्रपंच से व्यथित हो गये है। इसके बाबजूद सैकडों समर्पित आंदोलनकारी आज भी विद्यमान है जो प्रदेश के हक हकूकों व राज्य गठन की जनांकांक्षाओं को साकार करने के लिए तमाम विपरित परिस्थियों व सरकारी दमन के बाबजूद भी समर्पित है। आंदोलनकारियों को विश्वास है देर सबेर ही सही राज्य गठन की तरह ही जनांकांक्षाओं को भी अपने निहित स्वार्थ के लिए साकार करने के लिए सरकार मजबूर होगी। शेष श्रीकृष्ण कृपा। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय् नमो। हरि ओम तत्सत।

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