उत्तराखंड देश

सरकार द्वारा ढाये जा रहे घोर उपेक्षा के दंश व युवतियों के शहरी मोह से मंडराया उतराखण्ड पर भारी  संकट

लद्दाख ही नहीं उतराखण्ड सहित देश की जनता की भी आवाज नहीं सुनती है सरकारें

शताब्दियों से महिलाओं के महान संघर्षो से ही जीवंत उतराखण्ड पर मंडराया भारी संकट, युवतियों के नजरिये में आये बदलाव के बाद कैसे होगी रक्षा?

देवसिंह रावत
हमदर्द बन कर जो भी
रहनुमा बने हमारे।
वे भी चंगेज, ओरंजेब,
फिरंगी से बदतर निकले।
अब किस पर भरोसा करे
भारत की जनता ?
यहां तो कदम कदम पर
आस्तीन के सांप निकले।
एक से बढ़कर एक
कालनेमियों की जमात निकली
दो दिन पहले ही संसद की देहरी से सटे देश में लोकशाही का प्रमुख स्तम्भ पत्रकारिता के सबसे बडे संस्थान प्रेस क्लब आफ इंडिया में देश के वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र सिंह श्योरन ने वरिष्ठ पत्रकारों के साथ एक परिचर्चा का आयोजन किया। इस आयोजन का मंतव्य था कि केंद्र सरकार द्वारा उपेक्षित लद्दाख की जनता के दो माह से चल रहे व्यापक जनांदोलन के साथ देश का खुला समर्थन करना।
उल्लेखनीय है कि लद्दाख के सोनम वागचुक  के नेतृत्व में लद्दाख की जनता आंदोलनरत है। जनता की मांग है कि जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद जिस प्रकार से जम्मू कश्मीर व लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया।  जम्मू कश्मीर को विधानसभा से युक्त किया गया। परन्तु लद्दाख को विधानसभा से वंचित कर अखिल भारतीय स्तर की नौकरशाही के रहमोकरम पर छोड दिया गया। जिस लद्दाख में धारा 370 हटाने का व्यापक स्वागत किया गया। वह लद्दाख में एक दो साल के अंदर लोगों को लगा कि उनके हक कूकों को नौकरशाही से रौंदा जा रहा है। जनता की भावना का सम्मान करते हुये जहां भाजपा ने जनता को विश्वास दिया कि लद्दाखी जनमानस के हक हकूकों, संस्कृति की रक्षा के लिये वह उसे छटी अनुसूचि में लाभान्वित करायेगी। परन्तु जब भाजपा ने अपने वचन को अमली जामा नहीं पहनाया तो सोनम वागचुक के नेतृत्व में जनता ने विगत दो माह से ऐतिहासिक जनांदोलन छेड रखा है। इसमें स्थानिय काउंसिल के साथ लोकसभा की एक और सीट देने व स्थानिय लोगों को शासन प्रशासन में वरियता देने आदि की पुरजोर मांग की। परन्तु जनता के इस व्यापक मांग व आंदोलन को केंद्र सरकार व भाजपा ने नजरांदाज किया उससे लद्दाखी जनता में भारी आक्रोश है। खासकर वहां चारागाह क्षेत्र में चीन के हस्तक्षेप के प्रति भी सरकार की उदासीनता के खिलाफ जनता का जनमार्च से पूरे देश का ध्यान लद्दाख की ज्वलंत समस्याओं के प्रति गया। जनता हैरान है कि लोकशाही में  सरकारें क्यों देश की सुरक्षा के साथ व्यापक जनांदोलन की उपेक्षा कर रही है?इस परिचर्चा में देश के वरिष्ठ पत्रकार राजेश सिंह (गुजरात समाचार ), एसपी त्रिपाठी , जीतेंद्र पाण्डे व मैने भी भाग लिया। मैने इस पर अपने विचार प्रकट करते हुये कहा कि देश में लोकशाही की स्थिति बेहद शर्मनाक है। यह स्थिति किसी भी जागरूक व्यक्ति को भी विचलित कर सकती है। लद्दाख ही नहीं देश के हर प्रांत में जनहितों व जन मांगो को जिस ढंग से नजरांदाज कर रही है वह लोकशाही के लिये किसी खतरे से कम नहीं है। उतराखण्ड प्रांत का मूल निवासी होने के कारण हम इस बात से हैरान है न केवल उतराखण्ड की अपितु केंद्र की डबल इंजन की तथाकथित सरकारें भी उतराखण्ड के ज्वलंत मांगों व जनांदोलनों को शर्मनाक ढंग से नजरांदाज करती रही है। उतराखण्ड के लोग वहां से हो रहे पलायन, घुसपेठ, बेरोजगारी व अपराध जेेैसे मामलों पर प्रांत सरकार की विफलता के लिये जहां मूल निवास, भू कानून, राजधानी गैरसैंण, अंकिता भण्डारी आदि मांगों को लेकर चल रहे व्यापक जनांदोलन पर मूक बने रहने से स्तब्ध है।  इससे जनता को ऐसा लग रहा है कि जनहितों व जनांदोलनों को नजरांदाज करके केवल अपनी बात थोपने का काम ही सरकारें कर रही है। जिससे देश में भारी असंतोष हैं।
उतराखण्ड में व्यापक जनांदोलन के बाद सेकडों करोड रूपये से गैरसैंण में बनी  भव्य विधानसभा के बाबजूद वहां विधानसभा सत्र कराने व वहां राजधानी घोषित करने से सरकार कतरा रही है। प्रदेश के युवाओं को रोजगार देने के बजाय बाहरी लोगों को थोक के भाव यहां पर नियुकत कर बेरोजगारों की आशाओं पर बज्रपात कर रहे है। जो सरकारी नियुक्तियां है विगत 24 साल से यहां में स़़तारूढ रहे मुख्यमंत्री, विधानसभाध्यक्ष, मंत्री व नौकरशाहों के साथ सरकार के दिल्ली आकाओं के चेहतों व प्यादों के बीच बंदरबांट की जाती रही। कुछ शेष अवशेष नियुक्तियों में भर्ती के नाटक के नाम पर प्रतिभावानों के बजाय टकों में बेच दी गयी। इस सीमांत प्रदेश की जमीनों को दिल्ली दरवार के आकाओं के प्यादों व थेलीशाहों को निर्ममता से बांटी दी गयी।  प्रदेश की जनता राज्य गठन आंदोलन से अब तक भू कानून व मूल निवास के साथ राजधानी गैरसैंण बनाने के लिये निरंतर मांग करती रही। परन्तु सरकार किसी की भी रहे यहां पर आसीन दिल्ली दरवार के प्यादे इनको अनसुना करके केवल दिल्ली दरवार के रागों को ही गाते रहे। वहीं हल्द्वानी व देहरादून सहित प्रदेश में घुसपेठियों खासकर बंग्लादेशी व रोहिंल्ला मुस्लिमों की भारी संख्या में योजनाबद्ध ढंग से बसावत प्रदेश की शांति पर बार बार ग्रहण लगा रहे है। इसके साथ दिशाहिन पदलोलुपु नेतृत्व के कारण जोशीमठ, उतरकाशी व उद्यान सचिव आदि प्रकरणों से साफ हो गया कि प्रदेश निरंकुश व भ्रष्ट नौकरशाही के रहमों करम के तले दम तोड रहा है। प्रदेश के हक हकूकों व न्याय की मांग को लेकर आंदोलन करने वालों को माओवादी व आंदोलनजीवी कह कर लोकशाही के ध्वजवाहकों पर जुल्म ढा कर लोकशाही पर एक प्रकार से कुठाराघात किया। ऐसी जन आंदोलन व जनहितों की उपेक्षा कर रौंदने का अलोकतांत्रिक कार्य लद्दाख में भी सत्तामद में किया जा रहा है। हैरानी की बात यह है कि वह भी लद्दाख व उतराखण्ड जैसे ऐसे प्रांतों की जनता के साथ किया जा रहा है जो निरंतर प्रधानमंत्री मोदी को सतासीन करने के लिये सतत समर्पित रहे। इसे देख कर जनता ही नहीं अपितु राष्ट्रवादी चिंतक व विशेषज्ञ भी स्तब्ध है। देश के राजनेताओं को अब केवल अपनी कुर्सी की चिंता है देश व जनता की कहीं दूर तक नहीं।
उतराखण्ड प्रदेश में पलायन के दंश से पर्वतीय जनपदों की स्थिति स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन की दृष्टि से बेहद दयनीय है। परन्तु सरकारें इस दिशा में कोई एक कदम भी ईमानदारी से नहीं उठा रही है। प्रदेश में पर्वतीय जनपदों के जिलामुख्यालय चिकित्सालय भी दम तोड रहे है।
सरकारों की गलत नीतियों के कारण जहां जंगल जल रहे हैं।वहीं खेत खलिहान बंजर पड गये है। जंगली हिंसक पशुओं ने लोगों का जीना दुश्वार कर रखा है। प्रदेश के हितों के प्रति हुक्मरानों व जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के कारण प्रदेश में देश भर के अपराधियों  व हिंसक पशुओं का अभ्यारण बन गया है।
ऐसे माहोल में उतराखण्ड पर इस समय दो तरफा बज्रपात हो रहा है। एक तरफ सरकार द्धारा की जा रही घनघोर उपेक्षा का दंश व दूसरी तरफ पर्वतीय समाज में आत्मघाती शहरी मोह । सदियों से उतराखण्ड को जीवंत बनाये रखने मे उतराखण्ड की मातृशक्ति का सबसे अहम योगदान रहा। उतराखण्ड का इतिहास ही वीरांगनाओं की यशोगाथाओं से भरा हुआ हैं। तीलू रोतेली हो या गौरादेवी या टिंचरी माई सबने प्रदेश की आनमान शान पर चार चांद लगाये। उतराखण्ड राज्य गठन आंदोलन में भी हंसा धनाई हो बेलवती चौहान का बलिदान अमर रहा। इसके साथ राज्य गठन आंदोलन में कोशल्या डबराल, कमला पंत, उषा नेगी, आशा बहुगुणा, कमला कण्डारी, धनेश्वरी तोमर, गायत्री ढौडियाल, बीना बिष्ट, हंसा रौथाण, धनेश्वरी घिल्डियाल, कमला रावत,उषा नेगी, सुभागा खंडूडी, सम्पति डोबरियाल,सीता पटवालसहित सैकडों महिला नेत्रियों ने अपने संघर्ष से उतराखण्ड राज्यगठन जनांदोलन को राव मुलायम सरकारों के जघन्य दमन सह कर भी सफल बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उतराखण्ड का असली सच ही यह रहा कि आज तक आबाद दिख रहा है उसके पीछे असली योगदान उतराखण्ड की महिलाओं का है। महिलाओं ने भारी विषम परिस्थितियों में अपने त्याग, संघर्ष व कर्मठता से न केवल अकेले ही अपने खेत खलिहान, पशुओं, घर, जंगल व बच्चों की देखभाल करने का ऐसा कार्य किया जिसकी कल्पना आज शहरों के लोग कल्पना ही नहीं कर सकते है। यही नहीं आज उतराखण्ड के सीमांत व पर्वतीय जनपदों की नई पीढी की बहुयें व  युवतियां भी नहीं कर सकती। पहले गांवों से बाजार या दूसरे गांव जाने के लिये मीलों पैदल जाना पडता। आज गांव गांव सडकों का जाल है। पहले चिमनी, छूल्लों से घर को रोशन किया जाता था, पर आज बिजली से घर गांव रोशन है। पहले पानी के लिये तडके व सांझ अंधेरे में दूर दूर तक महिलाओं को जाना पडता था अब पानी घर घर में है। अब घर घर में शोंच व स्नानाघर हे। पहले दोनों के लिये महिलाओं को कितनी परेशानियां झेलनी पड़ती। मीलों दूर रात बेरात घराट जाना या साठी कुटना नहीं पडता। अब गांवों में ही चक्कियां लगी है। घास सुतोर व लकडियों के लिये भ्योल, पाखा, गहरी खाईयों, घनघोर जंगलों व पेड़ की चोटियों में अपनी जान खतरे में डाल कर हर रोज जा कर इतना भारी बौझा लाना पड़ता। जिसकी कल्पना भी आज के पहाडी गांवों की  नई बहुयें व युवतियां तथा महानगरों में रहने वाले लोग कर नहीं सकते। वे इसका श्रवण, चलचित्र व वृतांत ही सुन कर भयाक्रांत हो जाते। हर गांव में अनैक घसियारियां इन पहाडो,पेडों से गिर कर काल कल्वित हो जाते या सरकार की उदासीनता से बने हिंसक जंगली जानवरों के हमलों में काल कल्वित हो जातें। अधिकांश महिलायें पलायन के दंश से व्यथित बनवासी जीवन जीने के लिये मजबूर रहती थी। बीमारी व प्रसव में इलाज समय पर न मिलने पर या उपलब्ध न होने से सेकडों महिलायें हर साल काल कल्वित हो जाती। चिकित्सालयों के अभाव या दुर्दशा के कारण प्राय‘ बीमार बिना दवा व उपचार के ही कालकल्वित हो जाते। आज सरकार की पर्वतीन क्षेत्रों के प्रति शर्मनाक उदासीनता से उचित शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, शासन आदि के अभाव में लोग घर गांव छोड कर देहरादून व इसके आसपास के मैदानी जनपदों में बसने के लिये मजबूर है।
इस कारण प्रदेश की युवतियों में एक बडा बदलाव आ गया है। जिसने पहाड की नींव पूरी तरह हिला दी है। यह है युवतियों में शादी की प्रति ऐसी प्रवृति बन गयी है कि जिस युवक की सरकारी नोकरी हो व दिल्ली देहरादून आदि महानगरों व नगरों में मकान हो उसी से शादी करने के लिये तैयार है। ये युवतियां गांव में रहने वाले सम्पन्न स्वरोजगार युक्त युवक से भी शादी नहीं करना चाहते। जबकि आज गांवों में अधिकांश लोगों ने खेती करना, पशुपालन व जंगल आदि जाना छोड दिया है। इसके बाबजूद नई बहुयें गांव में नहीं रहना चाहती। वह बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के बहाने बिना बच्चे जन्में भी गांव के बजाय देहरादून या कस्बों में रह रही है। इससे गांवों में मजबूर बुजुर्ग मां बाप अपने पूर्वजों की खेत खलिहान व घरों की चौकीदारी करने के लिये मजबूर हैं। इस प्रकार एक तो गांव उजड से गये है। बच्चों की किलकारियों व युवाओं की उमंगों की अट्ठाहस से पहाड वंचित हो गया है। खेत खलिहान बंजर से पड गये है। जंगली जानवरों के आतंक से जंगल खेत खलिहान ही नहीं अपितु घर व बाग बगीचे भी बर्बाद हो गये। ऐसे में नई युवतियों की इस प्रवृति से पहाड़ी गांवों में निजी कंपनियों में काम करने वाले युवा व स्वरोजगार में गांवों में लगे युवाओं में शादियों का संकट पैदा हो गया है। हर गांव में अनैक बेटे अधेड हो गये पर उनको कोई बाप अपनी बेटी व्याहने या कोई तरूणी शादी करने के लिये तैयार नहीं है। इससे पहाडी समाज में भारी संकट पैदा हो गया है। इस का समाधान अगर शीघ्र नहीं किया गया तो पहाड पूरी तरह उजड जायेगे। इस समस्या के समाधान के लिये सरकार के साथ जनप्रतिनिधियों व समाजसेवियों के अलावा हर बुद्धिजीवी को इसके समाधान के लिये युवतियों के साथ उनके परिजनों को समझाना चाहिये। ऐसी प्रवृति अधिकांश परिवारों में देखने को आ रही है कि लोग अपनी बेटी की शादी के समय चाहते कि उनकी बेटी गांव में रहने के बजाय दामाद के साथ शहरों में रहे। परन्तु अपनी बेटे की शादी के समय उनकी इच्छा होती है कि उनकी बहु उनके साथ ही गांव में रहे, भले ही बेटा शहरों में नोकरी करे। यही दोहरी मानसिकता के कारण शताब्दियों से विकट जीवन जीने के बाबजूद भी आबाद रहे पहाड अब खुशहाली के बसंत के पहला झौंके से बिखर रहा है। इस दोहरी मानसिकता से पहाडी मानस का जीवन नारकीय हो गया। उसे पहाड की स्वर्ग सी वादियों को छोड कर शहरों का नारकीय जीवन बरबस जीने के लिये अभिशापित होना पड रहा है। इस पर गंभीर चिंतन मंथन के साथ समाधान की जरूरत है। जरूरत है पहोड फिर से आबाद करने की।

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