देश

अलग पिच पर हो रहा है 2019 का आम चुनाव

 

 
 
वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार

चुनाव आयोग ने भले आम चुनाव की दुंदुभि अब बजाई है, पर राजनीतिक दल काफी पहले से मोर्चाबंद में जुट गए थे। हां, आयोग की घोषणा के साथ चुनावी आचार संहिता लागू हो गई है जिसके बाद सरकारें नई घोषणायें नहीं कर सकेंगी तथा राजनीतिक दल अपने वाणी एवं व्यवाहर में ज्यादा संयमित हो जाएंगे। 89 करोड़ 88 लाख मतदाताओं का यह दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव होगा। यह संख्या 2014 के आम चुनाव से 8 करोड़ 43 लाख अधिक है। हालांकि 2009 से 2014 के बीच 10 करोड़ मतदाता बढ़े थे। उसकी तुलना मंें यह वृद्धि कम है। शायद इस बीच आबादी उस अनुपात में नहीं बढ़ी है। यह पहला आम चुनाव होगा जिसमें सभी इवीएम के साथ वीवीपैट लगेंगे एवं जिन वाहनों में ये जाएंगे उनके साथ जीपीएस लगा होगा ताकि वे कहां है इनका पता लग सके। चुनाव आयोग ने ईवीएम पर संदेह करने को बार-बार खारिज करते हुए इसे शत-प्रतिशत सुरिक्षत प्रणाली कहा है। बावजूद इतनी सख्त व्यवस्था का उद्देश्य एक ही है कि किसी तरह चुनाव प्रक्रिया पर किसी तरह की उंगली उठने की स्थिति न बचे। उममीद करनी चाहिए कि चुनाव परिणामों के लिए फिर ईवीएम को जिम्मेवार नहीं बनाया जाएगा। उम्मीदवारों के लिए पैन कार्ड अनिवार्य करने तथा मुकदमों के बारे में विज्ञापन देने की अनिवार्यता को लेकर निस्संदेह, प्रश्न उठाए जा सकते हैं। चुनाव को स्वच्छ और निष्पक्ष बनाने के नाम पर हम ऐसे लौह दीवार न खड़ी कर दें कि जमीनी संघर्ष से निकले हुए कार्यकर्ताओं-नेताओं का चुनाव लड़ना मुश्किल हो जाए। किंतु यह अलग से बहस का विषय है। इस समय चुनाव की घोषणा के साथ सबका एक ही प्रश्न है आखिर इस बार होगा क्या?

यह चुनाव पिछले कई चुनावों से अलग हैं। पिछले करीब एक वर्ष से विरोधी दलों का मुख्य नारा है, नरेन्द्र मोदी हटाओ। किसी एक नेता को केन्द्र बनाकर विरोध की राजनीति भारत की नई पीढ़ी के मतदाता पहली बार देख रहे हैं। 1991,1996,1998,1999,2004, 2009 एवं 2014 में इस तरह एक नेता के ऐसे तीखे विरोध का वातावरण नहीं था। जाहिर है, 18 वर्ष से लेकर 40 के आसपास की उम्र वाले मतदाता राजनीति का यह परिदृश्य पहली बार देख रहे हैं। ऐसे मतदाताओं की संख्या 65 प्रतिशत के आसपास होगी। इनका मत चुनाव परिणाम के लिए मुख्य निर्धारक होगा। 1977 में विपक्ष का सम्मिलित स्वर इंदिरा गांधी हटाओ का था तो उसके पीछे आपातकाल मुख्य कारण था। 1989 में राजीव गांधी के खिलाफ ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश हुई तो बोफोर्स मुख्य मुद्दा था एवं विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस से विद्रोह कर बाहर आए थे। वे उस चुनाव में मुख्य चेहरा थे। इस बार ऐसा कोई वातावरण नहीं है। बनाने की कोशिश जरुर हुई हैै। कितना बना है कहना मुश्किल है। मोदी विरोधी धरातल पर एक होने के बावजूद विपक्ष के बीच 1977 तथा 1989 जैसी एकजुटता नहीं है। तमाम कोशिशांें के बावजूद विपक्ष का राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन नहीं बन सका तथा कई राज्यों में भी ये बंटे हुए हैं। जिसे यूपीए या संप्रग कहते हैं वह राष्ट्रीय स्तर पर संगठित नहीं है। इसके समानांतर चुनाव आते-आते नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा के नेतृत्व मंें राजग राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हो चुका है।

यह चुनाव में एक कारक हो सकता है। जरा दोनों खेमों की तस्वीर पर नजर दौड़ा लीजिए। राजग के पास नरेन्द्र मोदी के रुप में एक सर्वसम्मत नेता है तथ सभी राज्यों मंें सीटों का स्पष्ट बंटवारा हो चुका है जबकि दूसरी ओर महाराष्ट्र, तमिलनाडु और झारखंड को छोड़ दंे तो विरोधी एकजुटता की अभी तक तस्वीर साफ नहीं है। सबसे ज्यादा 80 सीटें देने वाली उत्तर प्रदेश में बसप-सपा-रालोद गठबंधन में काग्रेस को जगह नहीं मिली। पिछले चुनाव में राजग में 18 दल शामिल थे जिनकी सीटें थीं, 336। इसके समानांतर यूपीए में 14 दल शामिल थे जिनकी सीटें थीं, 60। अगर मतों के अनुसार देखें तो पिछले चुनाव में भाजपा को 31 एवं राजग को 39 प्रतिशत मत मिला था। इसके समानांतर यूपीए को 23.3 प्रतिशत मत था। इस तरह दोनों के बीच उस समय 16 प्रतिशत का बड़ा अंतर था। कांग्रेस को 19.5 प्रतिशत मत आए थे। इस समय के समीकरण के अनुसार देखें तो राजग तेलुगू देशम एवं रालोसपा के बाहर आने के बावजूद 350 सीटों के साथ उतर रही है। चुनाव में उतरते समय उसके पास 41 प्रतिशत से ज्यादा मत हैं। इसके समानांतर यूपीए का चूंकि एक राष्ट्रीय स्वरुप नहीं हैं, इसलिए इस तरह का आंकड़ा उसके बारे में नहीं दिया जा सकता। जिसे यूपीए कहते है उसके पास 68 सीटें हैं। कांग्रेस का 19.5 प्रतिशत तथा बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि में उसके सहयोगियों को मिला दे ंतो यह 23 प्रतिशत के आसपास ठहरता है। पश्चिम बंगाल में यदि वामदलों के साथ गठबंधन हो जाए तो सीटों की संख्या 78 और मत करीब 25 प्रतिशत हो जाएगा। लेकिन कुल मिलाकर 2019 चुनाव की शुरुआत आंकड़ों की दृष्टि से मजबूत राजग एवं कमजोर संप्रग से हो रही है।

प्रमुख राज्यों में देश में पांचवा सबसे ज्यादा 39 सांसद देने वाले राज्य तमिलनाडु की राजनीति में व्यापक परिवर्तन आ गया है। इस बार तमिलनाडु राजनीति को लंबे समय तक निर्धारित करने वाले व्यक्तित्व एम करुणानिधि एवं जे जयललिता दोनों नहीं हैं। दोनों ओर गठबंधन हो चुका है। पिछली बार अन्नाद्रमुक ने एकपक्षीय जीत हासिल की थी। भाजपा अन्नाद्रमुक के साथ है तो कांग्रेस द्रमुक गठबंधन मे। सामान्य धारणा यही है कि वहां 2014 के परिणामों की पुनरावृत्ति नहीं होगी लेकिन एकपक्षीय जीत की भी संभावना नहीं है। इसी तरह चौथा सबसे ज्यादा सांसद वाले बिहार में लंबे समय बाद चुनाव लालू यादव की अनुपस्थिति में हो रहा है। पिछली बार राजग ने 40 में से 32 सीटें जीतीं थीं। जद यू अलग था, राजद अलग था। इस बार जद यू, भाजपा एवं रामविलास पासवान की लोजपा एक साथ है। दूसरी ओर अभी तक कांग्रेस, राजद, रालोसपा, हम एवं वाम दलों के बीच सीट बंटवारा नहीं हो पाया है। इसमें इस समय यह कहना मुश्किल है कि राजद नेतृत्व वाला गठबंधन राजग को परास्त कर आगे निकल जाएगा। दूसरा सबसे ज्यादा 48 सांसद वाले महाराष्ट्र में राजग को लेकर अनेक आशंकायें खडी की गईं थीं। वहां भी भाजपा ने शिवसेना के साथ आराम से 25 और 23 सीटों पर गठबंधन कर लिया।

तो कुल मिलाकर मोदी एवं भाजपा विरोध का स्वर जितना तेज रहा हो, चुनाव के मुहाने पर राजनीतिक समीकरण एवं अंकगणित में विरोधी आगे नहीं दिखते। छः राज्य ऐसे हैं जहां कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला हैं। इन राज्यों की 100 सीटों में से कांग्रेस को 2014 में केवल तीन सीटें मिलीं थीं। इनमें से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में उसने भाजपा को पराजित किया है तथा गुजरात में अच्छी टक्कर दी है। सामान्य विश्लेषण में इन परिणामों के अनुसार कांग्रेस को कम से कम 32-35 सीटें मिलनी चाहिए। भाजपा को सबसे अधिक 71 और गठबंधन के साथ 73 सीटेें उत्तर प्रदेश से मिली थी। बसपा और सपा अलग-अलग लड़े थे। बसपा को 19.77 प्रतिशत तथा सपा को 22.35 प्रतिशत मत मिले थे। दोनों का 42.12 प्रतिशत तथा रालोद के 0.86 प्रतिशत के साथ यह 42.98 प्रतिशत हो जाता है। भाजपा के 42.63 प्रतिशत तथा अपना दल के 1 प्रतिशत मत को मिला दें कुल 43.63 प्रतिशत होता है। इस तरह बसपा सपा के सम्मिलित मत इनके पास पहुंच जाते हैं। इन मतों के अनुसार बसपा सपा रालोद को 42 सीटों पर बढ़त हासिल है। 15 सीटों पर सपा-बसपा के 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट थे। 17 सीटों पर भाजपा 10 प्रतिशत से कम अंतर से जीती थी। इसके आधार पर भाजपा का पक्ष कमजोर दिखाई देता है। लोकसभा चुनाव में जरूरी नहीं मतदान बिल्कुल उसी तरह हो। दूसरे, जैसे ही हम माहौल की ओर देखते हैं ये विश्लेषण कमजोर पड़ जाते हैं।

वस्तुतः इस समय यह चुनाव बिल्कुल अलग पिच पर होता दिख रहा है। चुनाव को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा कारक पाकिस्तान की सीमा में घुसकर भारतीय वायुसेना द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध की गई कार्रवाई हो गया है। इसके कायम रहते मतों एवं समीकरणों का सामान्य विश्लेषण प्रासंगिक नहीं रहेगा। 2014 में पूरे उत्तर एवं पश्चिम भारत में नरेन्द्र मोदी की लहर थी। उसमें सारे मुद्दे गौण हो गए थे। इस बार आतंकवादी ठिकानों पर वायुसेना की बमबारी ने मोदी के पक्ष में राष्ट्वाद का ऐसा आलोड़न पैदा किया है जिसमें सारे मुद्दे पीछे जा रहे हैं। एक तूफान जैसी स्थिति है। अगर कोई प्रतिकूल स्थिति पैदा नहीं हुई तो यह 2019 के आम चुनाव के परिणामों का सबसे बड़ा निर्धारक होगा। कितने आतंकवादी मरे, कहां अड्डे ध्वस्त हुए, मसूद अजहर को किसने छोड़ा आदि प्रश्न राष्ट्रवाद के इस तूफान में तिनके की तरह उड़ रहे हैं। अभी तक विपक्ष इस आलोड़न की काट तलाश नहीं पाया है। विपक्ष के लिए जरुरी हो गया है कि राष्ट्रवाद की इस पिच पर वह कुछ अलग प्रकार के मुद्दों की गुगली फेंके जो अभी तक दिखा नहीं है। वस्तुतः आज की स्थिति में राजग को पराजित करने के लक्ष्य में विपक्ष की चुनौतियां कहीं ज्यादा बढ़ी हुई है।

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