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पराजय से सबक लेने को तैयार ही नहीं है कांग्रेस

भाजपा व कांग्रेस सहित सभी दलों के लिए बड़ी चुनोती है 2019 का चुनावी समर

वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार

इस बात से कोई तटस्थ व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता कि कांग्रेस इस समय अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर गहरे निराशा में होगी। जिस तरह त्रिपुरा एवं नागालैंड से वह खत्म हो गई है तथा मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद वह सरकार बनाने में सफल नहीं हई उससे बड़ा राजनीतिक आघात किसी पार्टी के लिए कुछ नहीं हो सकता। मेघालय में जनता ने उसको बहुमत नहीं दिया तथा उसकी विरोधी पार्टियों को ज्यादा सीटें दे दीं। तो उसके खिलाफ एकत्रीकरण होना ही था। जाहिर है, पिछले वर्ष गुजरात चुनाव में थोड़ा बेहतर प्रदर्शन करने तथा भाजपा को कड़ी चुनौती देने से जो एक संभावना नजर आई थी वह पूर्वोत्तर पहुंचते-पहुंचते ध्वस्त होती दिख रही है। हाल में राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के उपचुनावों में मिली विजय का उत्साह भी काफूर है। कांग्रेस सहित भाजपा विरोधी दलों का मुख्य लक्ष्य 2019 हो चुका है। 2019 को कैसे साधा जाए यह कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है। हालांकि उसके पहले उसे करीब दो महीने बाद कर्नाटक विधानसभा चुनाव का सामना करना है जहां उसकी सरकार है। उसके बाद वर्ष के उत्तरार्ध में उससे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान विधानसभा चुनाव में उतरना है। स्वाभाविक है कि कांग्रेस 2019 को ध्यान में रखते हुए इन विधानसभा चुनावों में बेहतर करने की कोशिश करे। लेकिन क्या इसकी संभावना दिख रही है?

पूर्वोत्तर का परिणाम उसके लिए ऐसा झटका है जिसके मनोवैज्ञानिक असर से उबरना उसके लिए आसान नहीं होगा। आखिर गुजरात विधानसभा चुनाव तथा उसके बाद राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के उपचुनावों में प्रदर्शन के बाद वह जिस मानसिकता से पूर्वोत्तर में चुनाव लड़ रही थी वह मानसिकता तो हो नहीं सकती। इस समय तो एक पराजित पार्टी की मानसिकता के दौर से वह गुजर रही है। भाजपा ने कर्नाटक चुनाव की तैयारी एक वर्ष पहले आरंभ कर दिया था। जिस रणनीति, तौर तरीकों तथा प्रबंधन को भाजपा ने पूर्वोत्तर में अपनाया लगभग वही वह राज्य के चरित्र के अनुरुप कर्नाटक में अपना रही है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने भाजपा के लिए हर चुनाव को करो या मरो का चरित्र दे दिया है। कांग्रेस अभी इस स्वरुप को प्राप्त करने से वंचित है। अगर उसने पूर्वोत्तर में अच्छा प्रदर्शन किया होता तो इस समय उसके संदर्भ में पूरा माहौल ही बदला होता। दूसरी पार्टियां भी कांग्रेस की ओर 2019 के लिए उम्मीद भरी नजर से देखती। वह स्वयं भी कर्नाटक विधानसभा चुनावों में विजय पाने की मानसिकता से उतरती।

किसी पार्टी के लिए चुनाव परिणामों के पूर्व भविष्यवाणी कर देना जोखिम भरा है। लेकिन आगामी विधानसभा चुनावों तथा उसके बाद लोकसभा चुनाव की दृष्टि से कांग्रेस के अंदर जो परिवर्तन कई स्तरों पर दिखना चाहिए था वह नहीं दिख रहा है। राहुल गांधी अध्यक्ष बन गए हैं, सोशल मीडिया का प्रबंधन बेहतर हुआ है लेकिन इसके अलावा क्या? यह प्रश्न ऐसा है जिसका उत्तर किसी के पास नहीं है। कांग्रेस की समस्या है कि वह चुनावी प्रदर्शनों पर कभी ईमानदारी और गहराई से सामूहिक आत्ममंथन नहीं करती। जब आत्ममंथन ही नही होगा तो फिर कहां-कहां चूकें हुईं वह भी पकड़ में नहीं आ सकता। जब चूकें ही पकड़ में नहीं आएंगी तो फिर सुधार कहां से होगा। आप देख लीजिए पूर्वाेत्तर की विफलता के बावजूद किसी तरह के मंथन की कोई आवश्यकता पार्टी महसूस नहीं कर रही है। हां, सोनिया गांधी अवश्य विपक्षी नेताओं को रात्रि भोज पर आमंत्रित कर रहीं हैं। इससे क्या होगा? सोनिया ने पहले भी विपक्षी नेताओं की बैठकें की हैं। एक भाजपा विरोधी समूह बनाने की उनकी कोशिश पहले से है। विपक्षी दल उनके भोज में शामिल होंगे, भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की बात भी करेंगे, लेकिन जब तक उन्हें नहीं लगेगा कि कांग्रेस वाकई भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में है तब तक वे उसके छाते के नीचे आने को तैयार नहीं होंगे।

एक दो उपचुनावों में मिली विजय से यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है। आप उपचुनाव में जीत जाएं और जहां भी मुख्य चुनाव हो वहां भू-लुंठित हो जाएं तो फिर क्या होगा? यही हो रहा है। कांग्रेस को यह बात समझनी होगी कि विपक्षी दलांें को एक साथ लाने के प्रयास से ज्यादा जरुरी है अपने घर को संभालना, लगातार पराजय की स्थिति से बाहर निकलने का प्रयास करना। कांग्रेस यही नहीं कर रही है। आखिर 2014 के पराजय के बाद उसने अपने खोए जनाधार को पाने के लिए क्या किया है? उत्तर है, कुछ भी नहीं। एकाध सफलताओं पर पार्टी इतरा गई और मान लिया कि उसकी वापसी हो रही है। मसलन, 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन थोड़ा बेहतर रहा। इसकी पार्टी ने गलत व्याख्या की। यह उसकी सफलता नहीं थी। नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव के साथ गठबंधन की सफलता थी। न तो बिहार में कांग्रेस के संगठन का विस्तार हुआ न सामाजिक समीकरण ही इसके पक्ष में बने। तो फिर वापसी का संदेश इसे कैसे मान लिया गया? उसके बाद हमने देखा पंजाब छोड़कर ज्यादातर चुनावों में वह पराजित होती रहीं। उत्तर प्रदेश से वह साफ हो गई, जबकि अपने को बचाने के लिए उसने बिहार की तर्ज पर समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ किया। उत्तर प्रदेश में केवल नाम के लिए उसके विधायक बचे हुए है।

वास्तव में पूर्वोत्तर के धक्के को वह अपने भविष्य के संकेत के रुप में ले यही सबक है। आखिर जिस पूर्वोत्तर में उसकी तूती बोलती थी वहां से लगभग वह साफ हो चुकी है। देश में भी आज कुल मिलाकर उसका शासन केवल तीन राज्यों और एक केन्द्रशासित प्रदेश में बचा हुआ है। इससे दुर्दिन वैसी पार्टी के लिए क्या हो सकता है जिसका कभी देश पर एकच्छत्र राज रहा हो? अगर कांग्रेस को फिर भी नहीं लगता कि उसे गहरे आत्ममंथन एवं उसके अनुरुप संगठन, नीति एवं रणनीति में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है तो फिर कुछ नहीं कहा जा सकता। कमजोर के साथ कोई जाना नहीं चाहता। आप चाहे विपक्षी दलों की जितनी बैठकें बुला लें,संसद के अंदर सरकार को घेरने में तो विपक्ष का साथ मिल सकता है लेकिन कोई आपके नेतृत्व में गठबंधन को तैयार नहीं होगा। इसके लिए आपको अपने को आमूल रुप से बदलना होगा, कुछ बेहतर चुनावी प्रदर्शन करना होगा जिससे यह संदेश फैले कि वाकई कांग्रेस भाजपा एवं मोदी को चुनौती देने की स्थिति में आ रही है। केवल नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना करने से तो जनाधार वापस नहीं आएगा। आलोचना करते रहिए। पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों मंें आपने नरेन्द्र मोदी सरकार पर हमला किया। इसके पूर्व उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड तक में किया। परिणाम क्या आया? जिस गुजरात में नोटबंदी एवं जीएसटी का व्यापक असर था। व्यापारी से लेकर पटेल और मध्यम वर्ग तक भाजपा से नाराज था वहां आप उसे पटखनी देने में सफल नहीं हुए तो कहां होंगे?

कल्पना करिए जो धक्का कांग्रेस को चुनावों में लगा है वैसा ही अगर मोदी और शाह के नेतृत्व में भाजपा को लगा होता तो क्या होता? क्या कांग्रेस की तरह भाजपा भी चुप्पी मारकर बैठी होती या फिर आत्ममंथन करके भविष्य के चुनावों में जोर लगाने का वातावरण बना रही होती? बिहार पराजय को भाजपा ने एक सबक के तौर पर लिया। जो गलतियां हुईं उनको पकड़ने की कोशिश की, उनमें काफी सुधार किए, कुछ तौर-तरीके बदले…..और उसके बाद के परिणाम हमारे सामने है। कांग्रेस कम से कम भाजपा से तो सीख ले ही सकती है। लगता ही नहीं कि पार्टी का इसकी ओर कोई ध्यान है। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी की रीति-नीति में व्यापक बदलाव दिखना चाहिए था। अभी तक न चेहरों में व्यापक परिवर्तन हुआ है, न नीति और न रणनीति में ही आवश्यक बदलाव दिख रहा है। और आत्ममंथन या चुनावी पराजय की व्यापक समीक्षा की तो चर्चा तक नहीं है। इसमें उसके भविष्य के बारे में कोई सकारात्मक या आशाजनक आकलन करना जरा कठिन है।

 

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