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अंधे बांटे रेवड़ी की तरह सरकारें कामगारों को नहीं अपितु केवल अपने कर्मचारियों को दे रही मोटे वेतन

देश की आबादी का दो तिहाई जनता का जीवन बसर करने वाली असंगठित क्षेत्र के कामगारों को नहीं अपितु मात्र 4 प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों को दे रही मोटे वेतन व मंहगाई भत्ते

सरकारी कर्मचारियों को नया वेतन आयोग व महंगाई भत्ता देने से पहले असंगठित क्षेत्र के कामगारों को न्यूनत्तम वेतन तो दिलाये सरकार

अंधा बांटे रेवडी अपने अपने दे का कथन देश की सरकारों पर शतः प्रतिशत ठीक लागू होता है। सरकारें आजादी के बाद देश की तीन चैथाई जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले असंगठित क्षेत्र के कामगारों को न्यूनतम वेतन दिलाने के बजाय मात्र 3 प्रतिशत अपने सरकारी कर्मचारियों को ही बार बार वेतन बढाती जाती है। अगर सरकार, सरकारी कर्मचारियों को मोटे वेतन देना जायज मानती है तो वह असंगठित क्षेत्र के अधिकांश कामगारों के लिए न्यूनतम वेतन भी दिलाने में क्यों उदासीन रहती है।
त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव में 25 साल से सत्तारूढ़ माणिक सरकार हार गयी। चुनाव में दलों की हार जीत तो चलती रहती। परन्तु चुनाव जीती भाजपा ने आरोप लगाया कि माणिक सरकार ने त्रिपुरा में सरकारी कर्मचारियों को देष के अन्य भागों में मिले वेतन आयोग को लागू ही नहीं किया। सुनने में भी आम आदमियों को त्रिपुरा सरकार का काम गलत लग सकता है। परन्तु अगर मानवीय व न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो माणिक सरकार का यह कार्य उचित प्रतीत होता है।

क्या 40  करोड़ असंगठित क्षेत्र के कामगारों को नजरंदाज कर केवल 3-4 करोड़ लोगों की सुध लेने वाली सरकार को कल्याणकारी को लोक कल्याणकारी सरकार कहा जा सकता है ? इसका जवाब होगा नहीं। सरकारें सबका विकास व सबका साथ का लोकषाही के मूल मंत्र को आत्मसात करने के बजाय पहले से ही बेहतर वेतन लेने वाले कारिंदों को और अधिक मालामाल करती और देष के अधिकांश कामगारों को जो गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहे है उनको न्यूनतम वेतन दिलाने का दायित्व निभाने के बजाय उनको बदहाली की गर्त में ही पडे़ रहने देती है।
जिस प्रकार महंगाई के दंश से केवल मुठ्ठीभर सरकारी कर्मचारियों पीड़ित नहीं होते अपितु इससे सबसे पीड़ित आम गरीब जनता होती हैं। जो असंगठित क्षेत्र में काम करती है। सरकारों का यह दायित्व होता है कि उनके राज में जीवन बसर करने योग्य वेतन  सरकारी कर्मचारियों के साथ सभी को कामगारों को मिले। परन्तु देष की सरकारें देश के अधिकांश असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों को सरकार द्वारा न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। सत्तासीनों को देष के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश लोगों की स्थिति को देखकर भी उनको मृतप्रायः पड़ा जमीर न तो जागता है व नहीं उनको अपने दायित्व को ही बोध होता है। सरकारें असंगठित क्षेत्र के कामगारों को न्यूनत्तम वेतन को दिलापाती। अपनी अकर्मण्यता को ढकने के लिए सरकारें केवल सरकारी कर्मचारियों को नया वेतन आयोग लागू कर व महंगाई भत्ता देकर अन्याय को बढ़ावा देने का काम करती है। संख्या में सरकारी कर्मचारियों से 60 गुना से अधिक होने के बाबजूद ये बदहाली में जी रहे लोग अपने साथ इस अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते है।  इसलिए न्यूनतम वेतन भी न पा कर न तो अपने बच्चों को सही षिक्षा, चिकित्सा दिला पाते है व नहीं सही ढंग से मानवीय गरिमामय जीवन ही जी सकते। परन्तु सरकारें मात्र सरकारी कर्मचारियों की सुध भी इसलिए लेती है कि ताकी वह अपने कृत्यों पर पर्दा डाल सके और सरकारी तंत्र से अपने निहित स्वार्थो की पूर्ति सहजता से कर सके। इसीलिए सरकारी कर्मचारियों को वह समय समय पर नये वेतन आयोग व मंहगाई भत्ते से नवाजती है।
देश में सरकार जिस आधार पर न्यूनतम वेतन की गणना करती है वह असंगठित क्षेत्र पर लागू करने का प्रयास क्यों नहीं करती। गौरतलब है कि आज भी वेतन का निर्धारण करने का जो मानक तय किया जाता है, उसका आधार  1957 के श्रम सम्मेलन की सिफारिशों को मानक आधार मान कर  वेतन तय किया जाता हैै। न्यूनतम वेतन लागू करने के लिए 4 सदस्यों वाले परिवार को आधार मान कर की जाती है। कर्मचारी की कम से कम इतना वेतन तय किया जाता है  जिससे वह अपने परिवार के खाने, कपड़े, मकान, दवार्, इंधन, बिजली, मनोरंजन, शादी आदि का खर्चा निकाल सके। सभी सरकारी कर्मचारियों को ‘प्रशिक्षित श्रेणी में रखा जाता है और इसी आधार पर उनका वेतन तय होता है। इसी आधार पर 7वें वेतन आयोग ने न्यूनतम वेतन 18000 रुपए, तय करते समय प्रतिमाह 9218 रुपए भोजन और कपड़ों और 2033 रुपए विवाह, मनोरंजन और त्योहार के लिए तय किए हैं।
  माणिक सरकार ने दो वेतन आयोग को लागू न करके देष की दिषाहीन सरकारों को एक आदर्र्श कार्य किया था। जहां सरकारें आम जनता की खुशहाली के लिए काम करने के बजाय केवल अपने चंद मुठ्ठीभर कर्मचारियों का वेतन व मंहगाई भत्ता बढ़ाती है और देश व प्रदेशके अधिकांशअसंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले कामगारों को सरकार द्वारा न्यूनतम वेतन नहीं मिलता है उसकी सुध तक नहीं लेती है। सरकारी कर्मचारियों को तो पहले ही असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले बंधुआ मजदूरों की तरह जीवन बसर करने वाले देश के 60 प्रतिशत से अधिक कामगारो से कहीं बेहतर वेतन मिलता है। असंगठित क्षेत्र के अधिकांश कामगारों को सरकारों द्वारा घोशित न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता है। त्रिपुरा तो रहा दूर देश की राजधानी दिल्ली में भी फेक्टरियों, लालओं व निजी क्षेत्र में काम करने वालों को न्यूनतम वेतन तो रहा दूर 10000 रूपये भी इस मंहगाई के जमाने में नहीं मिलता है। देष के हुक्मरानों को चाहे वह किसी भी दल का क्यों न हो उसे अगर मंहगाई पर कभी भी कुछ कदम उठाने चाहिए तो वह असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की स्थिति को देख कर उठाना चाहिए। परन्तु देष में यह होता है। सरकारें मंहगाई बढ़ने पर मंहगाई भत्ता देती है उन सरकारी कर्मचारियों को जिनका वेतन पहले ही असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले देष के 2/3 कामगारों से कई गुना अधिक है।
देश की आबादी का कितना प्रतिशत केन्द्र सरकार व राज्य सरकार के कर्मचारी है इसका भी सही आंकडे उपलब्ध नहीं है।
वेतन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में कुल 33 लाख केंद्रीय कर्मचारी हैं। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो अमेरिका के मुकाबले देश में प्रति नागरिक सरकारी कर्मचारियों की संख्या काफी कम है। रिपोर्ट के अनुसार देश में 1 लाख लोगों पर सिर्फ 139 सरकारी कर्मचारी हैं, जबकि अमेरिका में 1 लाख नागरिकों पर 668 सरकारी कर्मचारी हैं। केंद्र सरकार ने बुधवार को महंगाई भत्ता व महंगाई राहत को दो प्रतिशत से बढ़ाकर चार प्रतिशत कर दिया। यह बढ़ोतरी एक जनवरी 2017 से प्रभावी होगी और इससे 48.85 लाख सरकारी कर्मचारियों व 55.51 लाख पेंशनभोगियों को फायदा होने की बात की गयी।
करीब पौने दो साल की जिद्दोजहद के बाद केंद्र द्वारा गठित 7वं वेतन आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी है उससे भारत सरकार के 47 लाख कर्मचारियों और 52 लाख पेंशनभोगियों को सीधे-सीधे लाभ पहुंचेगा। परंपरा के अनुसार देश भर की राज्य सरकारें, स्वायत्तशासी संस्थान और सरकारी नियंत्रण वाली फर्म भी वेतन आयोग को अपना लेती हैं। इस हिसाब से इसका असर संगठित क्षेत्र के दो करोड़ से ज्यादा कर्मचारियों पर पड़ेगा। राज्यों और सार्वजनिक उपक्रमों के करीब 2.3 करोड़ कर्मचारी।
आजादी से पहले ही आये पहले वेतन आयोग की सिफारिशें 1946 से लागू र्हुइं। पहले वेतन आयोग की रिपोर्ट स्वतंत्रता से पूर्व 1947 में आ गई थी। इसमें न्यूनतम वेतन 55रुपए तय किया गया ।ं दूसरा वेतन आयोग आया, इसको आजाद भारत का पहला निर्वाचित सरकार द्वारा दिया गया वेतन आयोग था।  जिसमें न्यूनतम वेतन अस्सी रुपए था, जो अब बढ़ा कर 18000 रुपए हो गया है। यानी पिछले 58 साल में सरकारी कर्मचारियों का वेतन 225 गुना बढ़ गया है। उसके बाद छह वेतन आयोग आ चुके हैं।
परन्तु सरकारें केवल सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढाने व उनको मंहगाई भत्ता देने के अलावा कोई काम नहीं करती है। सरकार को इस बात का भान नहीं रहता है कि देष की तीन चैथाई जनता असंगठित क्षेत्र में आश्रित है। उनके बच्चों को भी बेहतर शिक्षा चाहिए। उनको भी अच्छा जीवन स्तर चाहिए। परन्तु सरकारें केवल 3 प्रतिशत सरकारी व संगठित क्षेत्र कर्मचारियों का वेतन बढ़ा कर अपना दायित्व इति श्री समझते है। इससे देश में आर्थिक असामानता बढ़ती है और देश में मंहगाई बढ़ती है। समाज में अपराध बढ़ता है। सरकारों को नये वेतन आयोग गठित करने के बजाय सबसे पहले देश में असंगठित क्षेत्र के लोगों को न्यूनत्तम वेतन दिलाने का काम युद्ध स्तर पर करना चाहिए।

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