उत्तर प्रदेश

जेल में बंद गुरूओं से टूट रहा है गुरूओं का परमात्मा होने या आलौकिक शक्ति सम्पन्न होने का भ्रम!

धर्म के मठाधीशों व सरकार के दरवाजे आम जनता के लिए बंद होने के कारण पनप रहे है छदम् गुरू
देवसिंह रावत –

28 अगस्त को रोहतक जेल में बनी सीबीआई की विषेश अदालत  में 20 साल की सजा सुनने के बाद व उससे पहले सुनवाई के दौरान राम रहीम के आंसू बहा रहा था। वह खूब रोया। रोते हुए राम रहीम ने न्यायाधीष से माफी भी मांग रहा था।
पूरी कार्यवाही खत्म होने के बाद भी राम रहीम फर्श पर बैठा रोता रहा। उसने कहा कि वह कोर्ट रूम से नहीं जाएगा। इसके बाद वकीलों ने उसे समझया।  उसे जबरन कोर्ट रूम से बाहर ले जाया गया। . अब राम रहीम को आने वाले 20 साल के लिए नये परिचय कैदी नंबर 1997 से जाना पहचाना जायेगा। पर अपनी खुद की बनायी कई फिल्मों में मुख्य अभिनेता का अभिनय करने वाले राम रहीम का जेल में रोना जेल से भयभीत होने से निकले असली आंसू थे या न्यायाधीश को प्रभावित करने के लिए अभिनय करके बहाये गये आंसू? यह तो समय ही बतायेगा। परन्तु आशा राम, रामपाल व राम रहीम प्रकरण से साफ हो गया कि जेल में बंद इन तीनों में वह परम शक्ति कहीं नहीं है जिसका दावा उनके समर्थक करते है। अगर इनमें कोई दिव्य या चमत्कारिक शक्ति होती या आध्यात्म तपोबल होता तो यह न्यायाधीश व जेल के अंदर ही अपनी शक्ति से कम से कम खुद को बेगुनाह साबित तो कर जेल की सलाखों से दोश रहित हो कर ससम्मान बाहर तो आते। अगर उनके खिलाफ कोई षडयंत्रकारी है तो वह अपनी आलौकिक शक्ति से उसे न्यायाधीष के समक्ष अपने गुनाह कबूल क्यों नहीं करा पाये? अगर वह अपनी दिव्य शक्तियों का प्रदर्शन नहीं करना चाहते है तो जेल से छूटने के लिए क्यों याचना कर रहे या गिडगिडा रहे है? क्या वे जेल को ही अपना आलौकिक धाम इतने समय बाद भी नहीं बना पाये। पर हमारा साफ मानना है कि इन लाखों करोड़ों भक्तों के लिए साक्षात भगवान के रूप में पूजे जाने वाले गुरूओं को कम से कम अपने समर्थकों या भक्तों के विश्वास की रक्षा करने के लिए अपनी चमत्कारिक शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए था।  जेल में एक सामान्य अपराधी की तरह न्याय की गुुहार लगाते देख कर कम से कम इनके भक्तों को यह समझ लेना चाहिए कि उनके गुरू अच्छे प्रवचनकत्र्ता व शिक्षक हो सकते हैं परन्तु दिव्य आध्यात्मिक या आलौकिक या चमत्कारिक शक्तियों से सम्पन्न वह सर्वशक्तिमान गुरू नहीं है जिसको समझ कर वह उनका शिष्य बना।

यहां सवाल केवल इन तीनों का नहीं अपितु देश में सैकडों ऐसी हुंकार भरने वाले बाबा है। ऐसा भी नहीं कि ये तीनों ही जेल गये। अनैक बाबा जेल गये और जायेंगे? परन्तु सवाल भारतीय संस्कृति की महान गुरू परंपरा की रक्षा का है, जिस पर आज ग्रहण लगता सा दिख रहा है। ऐसा भी नहीं है कि यह संकट केवल भारतीय धर्मो पर है ऐसा ही संकट विश्व के तमाम धर्मो में देखने को मिल रहा है। आधुनिकता की आंधी में प्राचीन धार्मिक मूल्यों की कीले ठोक हुए टेंट उखते हुए दिख रहे है।  

उल्लेखनीय है कि भारतीय जनमानस प्रायः समर्थ गुरू व दिव्यावतारों के आलौकिक शक्तियों के किस्सों को सुन कर पले बढ़े। उन्हें वर्तमान समय के गुरूओं पर भी ऐसी ही दिव्य शक्तियों के होने का विश्वास रहता है। अपने लौकिक संसार के दुखों, असफलताओं व परेशानियों से छुटकारा पाने या परमात्मा की प्राप्ति के लिए इन गुरूओं की शरण में जाते है। परन्तु उनके विश्वास को तब झटका लगता जब ऐसे प्रकरण सुनने में आते है। भारतीय संस्कृति गुरू को ज्ञान का, सबके हित में रत रहने वाला, दया, धर्म, न्याय, सत् व ज्ञान का महासागर के साथ भव बंधन को मुक्त करने वाला समर्थ मानता है। प्राचीन काल में बशिष्ट, विश्वामित्र, संदीपनी, जलंधर नाथ, मछेंदर नाथ, गोरखनाथ, कालिदास, बाल्मीकि, शंकराचार्य जैसे समर्थ गुरूओं की तो बात ही छोडिये वर्तमान काल में भी गुरू नानक, रामानंद, रैदास, कबीर, तुलसी,  रहीम, रसखान, मीरा, रामकृष्ण परमं हंस, चैतन्य महाप्रभु, रामतीर्थ, नीम करोली बाबा, देवराहा बाबा  व काला बाबा आदि असंख्य दिव्य गुरू रहे जिनके आशीर्वाद व तपोबल से भारतीय संस्कृति विश्व भर के आक्रांताओं के दमन  व अंग्रेजों के जाने के बाद सरकारों के भारतीय संस्कृति को रौंदने की प्रवृति के बाबजूद जीवंत है।
आज देश में भारतीय संस्कृति की सबसे बडी ध्वजवाहिका सनातन धर्म हो या सिख, जैन व बोध में धर्म के मठाधीशी पर ऐसे लोगों का कब्जा हो गया है जो समाज को भारतीय संस्कृति के अनुरूप दिशा देने के बजाय खुद ही दिशाहीनता के चक्र में फंसे हुए है। जाति व राजनीति के साथ संसाधनों की चकाचैंध से भ्रमित हो रखे हैं मठाधीश। ऐसे में समाज में तथाकथित गुरूओं का शिकंजा निरंतर कसता जा रहा है। परन्तु एक स्वर में डेरो व गुरूओं को नकारना भी आत्मघाती होगा। खासकर जब सरकार शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, न्याय व सुशासन  देने में ंअसफल हो। चारों तरफ भ्रष्टाचार व पथभ्रष्ट लोगों का शिकंजा हो। ऐसे में आम आदमी परमशांति के लिए परमात्मा की शरण में जाता है। लोगों को सही शिक्षा देने का दायित्व धर्म के जिन मठाधीशों पर है वे जातिवाद, मठाधीशी व ज्ञान के अहं से बाहर तक नहीं निकल पा रहे है। वे आम जनता में ज्ञान तो रहा दूर इनका दर्शन व आशीर्वचन तक नहीं मिलता है। ऐसे मेें आम गरीब, उपेक्षित, शोषित व सम्मान की चाह में भटक रहे लोगों को आज के गुरूओं का आश्रय मिलता है। वहां वे कुछ संस्कार, कुछ सम्मान, कुछ अपनत्व पा कर अपना जीवन धन्य समझते है। गुरू की मायालीला से अनजान ये परमेश्वर की शरण के चाह में इनसे जुड़ते है और गुरू गोविन्द दोनों खडे वाले दोहों को आत्मसात कर गुरू ब्रह्मा, गुरू विष्णु, गुरू देव महेश्वर समझ कर गुरू को ही अपना तारनहार समझते है। परन्तु यह दोष इन अज्ञानी व अभागे गुरूओं का है जो इतने श्रद्धावान शिष्यों की श्रद्धा की लाज न रख कर अज्ञानता, अहंकार व भौतिक संसार की चकाचैध की मायाजाल में फंस कर अपना को इहलोक बरबाद कर देते है अपितु उनको भगवान मानने वालों को भी शर्मसार कर देते है।  इन्हीं अज्ञानियों के लिए शास्त्रों में कालनेमी कहा गया है। ऐसे लोगों के लिए तुलसी दास ने लिखा है कि
ब्रह्मज्ञान जानो नहीं करम दिये छिटकाय
तुलसी ऐसे नर ही सहज नरक में जाय।
इसके बाबजूद भारतीय संस्कृति को बचाने में देश की सरकारों व मठाधीशों से कई अधिक इन तथाकथित गुरूओं का हाथ रहा। क्योंकि समाज में शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार व न्याय देने वाले  को सरकार ने थैलीशाहों व अंग्रेजी के लिए आरक्षित कर दिये। देश के समाज को पथभ्रष्ट करने में टीवी के संस्कारहीन धारावाहिकों का बहुत बडा हाथ है। सरकार उदासीन है। ऐसे में जनता शिक्षा कहां से ग्रहण करे। भारतीय  संस्कृति जितनी भी बची है वह केवल सनातन श्रद्धा व संस्कार जो परिवारों से लोगों को मिल रहे है। वह भी अब संकट में है। इसलिए लोगों को बहुत ही सावधानी से गुरू व शिष्य वाली परंपरा की रक्षा करनी होगी। तभी देश का कल्याण व रक्षा होगी।

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